श्रीमद भागवत गीता चौदहवाँ अध्याय :भाव विस्तार (श्लोक २५ -२७ )
ऐसा व्यक्ति गुणों से अतीत कहा गया है जिसके लिए मान अपमान एक समान हो जाएँ न मान गुदगुदाए न अपमान विचलित करे जिसे। अपमान से जो क्रोध में न आये। जो कर्तापन के अभिमान से मुक्त होकर कर्म करता है स्वार्थ रहित रहकर जो कर्म किया गया है वह कर्म फिर भगवान् के लिए किया गया कर्म हो जाता है सांसारिक कर्म नहीं रह जाता है।
अब गुणा तीत कैसे हुआ जाए इसका उत्तर भगवान् अगले ही श्लोक (२६
)में दे
देते हैं। वह कार्य गुणा तीत है जो जगत कल्याण के लिए किया जाए। स्वार्थ रहित निरभिमान होकर किया गया कार्य व्यक्ति को तीनों गुणों से बाहर निका लता है ,
जो व्यक्ति अव्यभिचारी योग के द्वारा भगवान् को प्राप्त करना चाहता है भगवान् की अव्यभिचारी भक्ति करता है यानी भगवान् के अलावा जिसकी और कहीं आस्था नहीं है निष्ठा का और कोई केंद्र नहीं है.जो मुझे अव्यभिचारी भक्ति से भजता है वह ब्रह्म की स्थिति को ही प्राप्त हो जाता है। मीरा भाव हैं यहाँ पर -दूसरो न कोई ,..... तातु मातु भ्रातु सखा दूसरों न कोई ,मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। वही है अव्यभिचारिणी भक्ति। ब्याहता स्त्री किसी और से दैहिक प्रेम करे पति के रहते तो वह व्यभिचारी प्रेम हो जाएगा। यदि भगवान् से अलग अस्तित्व मानकर आप कहीं सर झुका रहे हैं तब वह व्यभिचारिणी भक्ति हो जायेगी। जैसे हिन्दू धर्म में लोग तत्वों नदी नालों की भी पूजा करते हैं शनि की भी राहु केतु की भी पीपल की भी। किसी स्वयं घोषित भगवान् की भी।
भगवान् २७ वें श्लोक में अर्जुन से कहते हैं -विनाश रहित ब्रह्म का ,नित्य शाश्वत धर्म का
भी आधार मैं ही हूँ। बाहरी पहचान चिन्हों ,क्रिया कलापों कर्म कांडों को ही आज हमने धर्म मान लिया है। धर्म का आश्रय मान लिया है। भगवान् का निवास सत्य में है ईमानदारी में है। ईश्वर की प्रतिष्ठा भी मैं हूँ जीवन की स्थिरता का सुख आधार भी मैं हूँ।इन चीज़ों को बाहर ढूंढोगे तो केवल प्रतीति होगी। भटकाव होगा भटकाव के अलावा कुछ न होगा। मैं ही परम आनंद का स्रोत हूँ अक्षर ब्रह्म हूँ।
इस प्रकार गुणत्रयविभागयोग नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण होता है।
ऐसा व्यक्ति गुणों से अतीत कहा गया है जिसके लिए मान अपमान एक समान हो जाएँ न मान गुदगुदाए न अपमान विचलित करे जिसे। अपमान से जो क्रोध में न आये। जो कर्तापन के अभिमान से मुक्त होकर कर्म करता है स्वार्थ रहित रहकर जो कर्म किया गया है वह कर्म फिर भगवान् के लिए किया गया कर्म हो जाता है सांसारिक कर्म नहीं रह जाता है।
अब गुणा तीत कैसे हुआ जाए इसका उत्तर भगवान् अगले ही श्लोक (२६
)में दे
देते हैं। वह कार्य गुणा तीत है जो जगत कल्याण के लिए किया जाए। स्वार्थ रहित निरभिमान होकर किया गया कार्य व्यक्ति को तीनों गुणों से बाहर निका लता है ,
जो व्यक्ति अव्यभिचारी योग के द्वारा भगवान् को प्राप्त करना चाहता है भगवान् की अव्यभिचारी भक्ति करता है यानी भगवान् के अलावा जिसकी और कहीं आस्था नहीं है निष्ठा का और कोई केंद्र नहीं है.जो मुझे अव्यभिचारी भक्ति से भजता है वह ब्रह्म की स्थिति को ही प्राप्त हो जाता है। मीरा भाव हैं यहाँ पर -दूसरो न कोई ,..... तातु मातु भ्रातु सखा दूसरों न कोई ,मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। वही है अव्यभिचारिणी भक्ति। ब्याहता स्त्री किसी और से दैहिक प्रेम करे पति के रहते तो वह व्यभिचारी प्रेम हो जाएगा। यदि भगवान् से अलग अस्तित्व मानकर आप कहीं सर झुका रहे हैं तब वह व्यभिचारिणी भक्ति हो जायेगी। जैसे हिन्दू धर्म में लोग तत्वों नदी नालों की भी पूजा करते हैं शनि की भी राहु केतु की भी पीपल की भी। किसी स्वयं घोषित भगवान् की भी।
भगवान् २७ वें श्लोक में अर्जुन से कहते हैं -विनाश रहित ब्रह्म का ,नित्य शाश्वत धर्म का
भी आधार मैं ही हूँ। बाहरी पहचान चिन्हों ,क्रिया कलापों कर्म कांडों को ही आज हमने धर्म मान लिया है। धर्म का आश्रय मान लिया है। भगवान् का निवास सत्य में है ईमानदारी में है। ईश्वर की प्रतिष्ठा भी मैं हूँ जीवन की स्थिरता का सुख आधार भी मैं हूँ।इन चीज़ों को बाहर ढूंढोगे तो केवल प्रतीति होगी। भटकाव होगा भटकाव के अलावा कुछ न होगा। मैं ही परम आनंद का स्रोत हूँ अक्षर ब्रह्म हूँ।
इस प्रकार गुणत्रयविभागयोग नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण होता है।
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