मेरी पसंद मानस से :
(१ )सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा ,हठ न छूट छूटै बरु देहा ,
कनकउ पुनि पषान तें होई ,जारेहुं सहजु न परिहर सोई।
आपने यह सत्य ही कहा मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ है। इसलिए हठ नहीं छूटेगा ,शरीर भले ही छूट जाए। सोना भी पत्थर से ही उत्पन्न होता है ,सो वह जलाए जाने पर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व )को नहीं छोड़ता।
(२)नारद बचन न मैं परिहरऊँ ,बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ ,
गुर कें बचन प्रतीति न जेही ,सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही।
अत : मैं नारद जी के वचन को नहीं छोडूंगी ;चाहे घर बसे या उजड़े ,इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है ,उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती।
दोहा
महादेव अवगुन भवन ,बिष्नु सकल गुन धाम ,
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।
माना कि महादेव जी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सुखों के धाम हैं ;पर जिसका मन जिसमें रम गया ,उसको तो उसी से काम है।
(३ )जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा ,सुनतिऊँ सिख तुम्हारि धरि सीसा ,
अब मैं जन्मु संभु हित हारा ,को गुण दूषन करै बिचारा।
हे मुनीश्वरों !यदि आप पहले मिलते ,तो मैं आपका उपदेश सिर -माथे रखकर सुनती। परन्तु अब तो मैं अपना जन्म शिवजी के लिए हार चुकी। फिर गुण दोषों का विचार कौन करे ?
(४ )जौं तुम्हरे हठ हृदयं बिसेषी ,रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी ,
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं ,बर कन्या अनेक जग माहीं।
यदि आपके हृदय में बहुत ही हठ है और विवाह की बातचीत (बरेषी )किए
बिना आपसे रहा ही नहीं जाता ,तो संसार में वर -कन्या बहुत हैं।खिलवाड़
करने वालों को आलस्य तो होता नहीं ,और कहीं जाकर कीजिये।
(५ )जन्म कोटि लगि रगर हमारी ,बरूउं संभु न त रहउं कुआरि ,
तजउं न नारद कर उपदेसू ,आपु कहहिं सत बार महेसू।
मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूँगी ,नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें ,तो भी नारद जी के उपदेश को न छोडूंगी।
(६ )मैं पा परउं कहइ जगदम्बा ,तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा ,
देखि प्रेम बोले मुनि ग्यानी ,जय जय जगदम्बिके भवानी।
जगज्जननी पार्वतीजी ने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। आप अपने
घर जाइये ,बहुत देर हो गई। शिवजी में पार्वतीजी का ऐसा प्रेम देखकर
ग्यानी मुनि बोले -हे जगज्जननी !हे भवानी !आपकी जय हो !जय हो !
ॐ शान्ति
(१ )सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा ,हठ न छूट छूटै बरु देहा ,
कनकउ पुनि पषान तें होई ,जारेहुं सहजु न परिहर सोई।
आपने यह सत्य ही कहा मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ है। इसलिए हठ नहीं छूटेगा ,शरीर भले ही छूट जाए। सोना भी पत्थर से ही उत्पन्न होता है ,सो वह जलाए जाने पर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व )को नहीं छोड़ता।
(२)नारद बचन न मैं परिहरऊँ ,बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ ,
गुर कें बचन प्रतीति न जेही ,सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही।
अत : मैं नारद जी के वचन को नहीं छोडूंगी ;चाहे घर बसे या उजड़े ,इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है ,उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती।
दोहा
महादेव अवगुन भवन ,बिष्नु सकल गुन धाम ,
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।
माना कि महादेव जी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सुखों के धाम हैं ;पर जिसका मन जिसमें रम गया ,उसको तो उसी से काम है।
(३ )जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा ,सुनतिऊँ सिख तुम्हारि धरि सीसा ,
अब मैं जन्मु संभु हित हारा ,को गुण दूषन करै बिचारा।
हे मुनीश्वरों !यदि आप पहले मिलते ,तो मैं आपका उपदेश सिर -माथे रखकर सुनती। परन्तु अब तो मैं अपना जन्म शिवजी के लिए हार चुकी। फिर गुण दोषों का विचार कौन करे ?
(४ )जौं तुम्हरे हठ हृदयं बिसेषी ,रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी ,
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं ,बर कन्या अनेक जग माहीं।
यदि आपके हृदय में बहुत ही हठ है और विवाह की बातचीत (बरेषी )किए
बिना आपसे रहा ही नहीं जाता ,तो संसार में वर -कन्या बहुत हैं।खिलवाड़
करने वालों को आलस्य तो होता नहीं ,और कहीं जाकर कीजिये।
(५ )जन्म कोटि लगि रगर हमारी ,बरूउं संभु न त रहउं कुआरि ,
तजउं न नारद कर उपदेसू ,आपु कहहिं सत बार महेसू।
मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूँगी ,नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें ,तो भी नारद जी के उपदेश को न छोडूंगी।
(६ )मैं पा परउं कहइ जगदम्बा ,तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा ,
देखि प्रेम बोले मुनि ग्यानी ,जय जय जगदम्बिके भवानी।
जगज्जननी पार्वतीजी ने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। आप अपने
घर जाइये ,बहुत देर हो गई। शिवजी में पार्वतीजी का ऐसा प्रेम देखकर
ग्यानी मुनि बोले -हे जगज्जननी !हे भवानी !आपकी जय हो !जय हो !
ॐ शान्ति
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