मन बुद्धि चित्त और अहंकार
प्रश्न :भगवदगीता मन और बुद्धि भगवान् को समर्पित करने की बात करती। पंचदशी(विद्या-अरण्य कृत ) मन को बंधन और मुक्ति का कारण बतलाती है। शंकराचार्य अंत :करण (inner apparatus ) की मन ,बुद्धि ,चित्त और अहंकार के स्तर पर बात करते हैं।
क्या कोई फर्क है संतों और शाश्त्रों के इस नज़रिए में ?
उत्तर :हमारा मन चार स्तरों पर काम करता है।
(१) मन (Mind ):जब यह विचार पैदा करता है तब मन कहलाता है;यानी संकल्प विकल्प करता है तब मन कहाता है।
(२) जब यह इन विचारों को तौलता है इनका विश्लेषण अच्छे बुरे गुणों के हिसाब से करता है तब यह बुद्धि (intellect )कहलाता है;यानी निश्चय करता है तब मन कहाता है।
(3)चित्त :जब यह किसी वस्तु या व्यक्ति में अनुरक्त होता है तब चित्त कहलाता है;यानी जब भावन करता है तब चित्त कहाता है।
या अनुरागी चित्त की गति समझे न कोये।
ज्यों ज्यों बुड़े श्याम रंग त्यों त्यों उज्जल होये।
-(कविवर बिहारी )
यानी यह मन ज्यों ज्यों श्याम रंगी कृष्ण की भक्ति में डूबता है त्यों त्यों उज्जवल होता जाता है।
(४) और जब उपर्युक्त तीनों को अपना मानकार दंभ करता है तब अहंकार कहलाता है;यानी जब यह शरीर के गुणधर्मों में ही उलझ जाता है तब अहंकार कहाता है।
वास्तव में ये चारों अलग अलग स्वतन्त्र अस्तित्व वाली चीज़ें नहीं हैं। एक ही मन के काम करने की चार स्तर हैं। इसीलिए इन चारों को कभी मन ,कभी मन -बुद्धि ,कभी मन -बुद्धि -अहंकार और कभी मन-बुद्धि -चित्त और अहंकार कह दिया जाता है।
पंचदशी चारों को ही मिलाकर एक साथ मन की संज्ञा दे देती है और इसे ही कर्मबंध की वजह बतलाती है।
गीता में कृष्ण बार बार मन और बुद्धि की अलग अलग सत्ताओं के बारे में बात करते हैं। और बारहा दोनों को भगवान् में लगाने की बात करते हैं।
योग दर्शन प्रकृति के विभिन्न तत्वों का विश्लेषण करते हुए मन ,बुद्धि और अहंकार की बात करता है।
शंकराचार्य मन को चार खानों में विभक्त कर देते हैं :
मन ,बुद्धि ,चित्त और अहंकार। हैं चारों उसी अंत :करण के उपांग।
ॐ शान्ति
प्रश्न :भगवदगीता मन और बुद्धि भगवान् को समर्पित करने की बात करती। पंचदशी(विद्या-अरण्य कृत ) मन को बंधन और मुक्ति का कारण बतलाती है। शंकराचार्य अंत :करण (inner apparatus ) की मन ,बुद्धि ,चित्त और अहंकार के स्तर पर बात करते हैं।
क्या कोई फर्क है संतों और शाश्त्रों के इस नज़रिए में ?
उत्तर :हमारा मन चार स्तरों पर काम करता है।
(१) मन (Mind ):जब यह विचार पैदा करता है तब मन कहलाता है;यानी संकल्प विकल्प करता है तब मन कहाता है।
(२) जब यह इन विचारों को तौलता है इनका विश्लेषण अच्छे बुरे गुणों के हिसाब से करता है तब यह बुद्धि (intellect )कहलाता है;यानी निश्चय करता है तब मन कहाता है।
(3)चित्त :जब यह किसी वस्तु या व्यक्ति में अनुरक्त होता है तब चित्त कहलाता है;यानी जब भावन करता है तब चित्त कहाता है।
या अनुरागी चित्त की गति समझे न कोये।
ज्यों ज्यों बुड़े श्याम रंग त्यों त्यों उज्जल होये।
-(कविवर बिहारी )
यानी यह मन ज्यों ज्यों श्याम रंगी कृष्ण की भक्ति में डूबता है त्यों त्यों उज्जवल होता जाता है।
(४) और जब उपर्युक्त तीनों को अपना मानकार दंभ करता है तब अहंकार कहलाता है;यानी जब यह शरीर के गुणधर्मों में ही उलझ जाता है तब अहंकार कहाता है।
वास्तव में ये चारों अलग अलग स्वतन्त्र अस्तित्व वाली चीज़ें नहीं हैं। एक ही मन के काम करने की चार स्तर हैं। इसीलिए इन चारों को कभी मन ,कभी मन -बुद्धि ,कभी मन -बुद्धि -अहंकार और कभी मन-बुद्धि -चित्त और अहंकार कह दिया जाता है।
पंचदशी चारों को ही मिलाकर एक साथ मन की संज्ञा दे देती है और इसे ही कर्मबंध की वजह बतलाती है।
गीता में कृष्ण बार बार मन और बुद्धि की अलग अलग सत्ताओं के बारे में बात करते हैं। और बारहा दोनों को भगवान् में लगाने की बात करते हैं।
योग दर्शन प्रकृति के विभिन्न तत्वों का विश्लेषण करते हुए मन ,बुद्धि और अहंकार की बात करता है।
शंकराचार्य मन को चार खानों में विभक्त कर देते हैं :
मन ,बुद्धि ,चित्त और अहंकार। हैं चारों उसी अंत :करण के उपांग।
ॐ शान्ति
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