दहल उठा अचानक देख कर मैं अपनी
नजरों के सामने जो हैं
मैं जाने किस लोक में पहुँचा जाने किस राह से गुजरता हुआ
सामने जो बिछी थी बिसात शतरंज की नजर न हट सकी मेरी
मुझे लगा मानो राजा के सिवाय सारे मोहरे उतरे मनमानी को
सेनापति रानी प्यादे ही नही जानवर घोडेहाथी व
ऊंट भी थे भी
सारे मोहरे अपनी अपनी मर्जी से गलत बेहिसाब राह विचरने लगे
हैरान हुआ राजा अकेला क्या करेगा उसका अस्तित्व नकारा गया
खिलाडियों के हुक्म व स्पर्श बेकार हुये ऐसी बिसात का हाल
क्या
राजा किंकर्त्वमूढ हुआ खिलाडी सिर धुन रहे थे लोग हंस रहे
थे
अब उस देश परिवार की गहनता से सोचैं जहाँ घटित ऐसा होवे
अनियंत्रण हेतू दोष
राजा या परिवार प्रमुख का जग वाले मानेंगे
राह सही लाने हेतू हालातों को क्या विचारे जहाँ न्याय बिक
जावे
राजा कोई गैर नही मेरे देश की जनता शेष बैठाये जहाँ बैठ
जावे
जनता को राजा कहें हम वही तो जो सेवकों को काम में लगावे
पथिक अनजाना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें