यहाँ बेआशा ही रहा---पथिक अनजाना—522 वीं पोस्ट
ताउम्र मैं प्यासा ही रहा ताउम्र मैं यहाँ बेआशा ही रहा
मजबूरन सामाजिक बंधनों में बंध निभाई दुनियादारी
नही याद वो क्षण हमराहियों से विवाद न हुआ बेमानी
सोच उनकी व
मेरी में जाने फर्क कब कैसे आ गया
मैं अपने आसपास
व दूर की गहराईयाँ झांकता रहा
कहने वाले
के मन व हृदय के अन्तर को खोजू मैं
नही याद मुझे वो क्षण जब तहेदिल से सांस ले सका मैं
फिर कैसे बीती जिन्दगी सबके साथ बात हैरानी की हैं
अब प्यास नही जान लिया दुनिया पाण्डव महल हैं
जल राह नही राह जल नही दुनिया में हलचल नही
मस्त जियो न कभी कल था न होगा कभी कल कही
पथिक अनजाना
सुंदर ।
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