वही मुद्दे , वही वादे ,वही चेहरे पुराने हैं
सियासत की बिसातें हैं शराफ़त के बहाने हैं
चुनावी दौर में फ़िरक़ापरस्ती की हवाएं क्यूँ
निशाने पर ही क्यों रहते हमारे आशियाने हैं
ज़ुबां शीरी लबों पर है ,मगर दिल में निहां है कुछ
हमारी बेबसी ये है उन्हीं को आज़माने हैं
हमारे दौर का ये भी करिश्मा कम नहीं, यारो !
रँगे है हाथ ख़ूँ से जो ,उन्हीं के हम दिवाने हैं
तुम्हारी झूठी बातों में कहाँ तक ढूँढते सच को
तुम्हारी सोच में क्यूँ साज़िशों के ताने-बाने हैं
जहाँ नफ़रत सुलगती हैं ,वहाँ है ख़ौफ़ का मंज़र
जिधर उल्फ़त महकती है, उधर मौसम सुहाने हैं
चलो इस बात का भी फ़ैसला हो जाये तो अच्छा
तेरी नफ़रत है बरतर या मेरी उल्फ़त के गाने हैं
यही है वक़्त अब ’आनन’ उठा ले हाथ में परचम
अभी लोगो के होंठों पर सजे क़ौमी तराने हैं
-आनन्द.पाठक
09413395592
बहुत खूब लिखा है :)
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना, और अभिव्यक्ति .........
जवाब देंहटाएंhttp://hindikavitamanch.blogspot.in/
http://hindikavitamanch.blogspot.in/
आनंद पाठक साहब बड़ी मौज़ू ग़ज़ल कही है अपने वक्त से रु -ब-रु।
जवाब देंहटाएंआ0 सुशील कुमार जोशी जी/ॠषभ जी/वीरेन्द्र जी
जवाब देंहटाएंआदाब
आप सभी का धन्यवाद उत्साहवर्धन के लिए
सादर
आ0 शास्त्री जी
आप का बहुत बहुत धन्यवाद इस ग़ज़ल को चर्चा मंच [1587] पर लगाने के लिए
सादर
आनन्द.पाठक