बोतल में तो नहीं लौटेंगे
किताबी जिन्न
अवधेश कुमार
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब 'द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर' और पीसी पारेख की 'क्रूसेडर ऑर कॉन्स्पिरेटर' में दर्ज बातें पहली नजर में हिलाकर रख देती हैं। हालांकि दोनों किताबों में गुणात्मक भेद हैं। बारू के सामने अपना संस्मरण लिखने की कोई विवशता नहीं थी, जबकि पारेख के खिलाफ कोयला आवंटन घोटाले में मुकदमा चल रहा है। यदि उनके खिलाफ केस दर्ज नहीं हुआ होता तो वे शायद ही ऐसा कुछ लिखने की जहमत उठाते। मुकदमा दर्ज होते समय भी उन्होंने बयान दिया था कि 'यदि मैं दोषी हूं तो तत्कालीन कोयला मंत्री के रूप में प्रधानमंत्री दोषी क्यों नहीं हैं?' अपनी पुस्तक में भी उन्होंने यही स्थापित किया है। मसलन, उन्होंने दावा किया है कि सरकार के कुछ मंत्री प्रधानमंत्री के निर्देशों की अवहेलना करके कोल ब्लॉक आवंटन में अपना हित साधने में जुटे हुए थे।
पवित्र नौकरशाही
पारेख ने अपनी किताब में कई अन्य राजनीतिक दलों के सांसदों भी को ब्लैकमेलर और वसूली करने वाला करार दिया है। उन्होंने यह आरोप भी लगाया है कि कोलगेट मामले में सीबीआई जांच की सिफारिश अंतिम समय में पूरे मामले पर पर्दा डालने की नीयत से की गई थी। इसमें उनकी चिंता किसी सत्य का उद्घाटन करने से ज्यादा अपना बचाव करने की दिखाई पड़ती है। इस पुस्तक में कहीं भी पारेख ने अपनी या अन्य नौकरशाहों की किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी स्वीकार नहीं की है। केवल नेताओं, मंत्रियों और उनके सहयोगियों को चोर, बेईमान, दलाल और अपने स्वार्थ के लिए देश हित की बलि चढ़ाने वाला करार दिया है। उदाहरण के लिए, उन्होंने कहा है कि सार्वजनिक उपक्रमों के निदेशकों और सीईओ की नियुक्तियों में खुलेआम पैसा लिया जाता था। पारेख ने लिखा है कि 2004 में कोल इंडिया का सीएमडी बनाने के लिए मंत्रियों की ओर से अधिकारियों की ब्लैकमेलिंग भी जम कर हुई थी।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब 'द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर' और पीसी पारेख की 'क्रूसेडर ऑर कॉन्स्पिरेटर' में दर्ज बातें पहली नजर में हिलाकर रख देती हैं। हालांकि दोनों किताबों में गुणात्मक भेद हैं। बारू के सामने अपना संस्मरण लिखने की कोई विवशता नहीं थी, जबकि पारेख के खिलाफ कोयला आवंटन घोटाले में मुकदमा चल रहा है। यदि उनके खिलाफ केस दर्ज नहीं हुआ होता तो वे शायद ही ऐसा कुछ लिखने की जहमत उठाते। मुकदमा दर्ज होते समय भी उन्होंने बयान दिया था कि 'यदि मैं दोषी हूं तो तत्कालीन कोयला मंत्री के रूप में प्रधानमंत्री दोषी क्यों नहीं हैं?' अपनी पुस्तक में भी उन्होंने यही स्थापित किया है। मसलन, उन्होंने दावा किया है कि सरकार के कुछ मंत्री प्रधानमंत्री के निर्देशों की अवहेलना करके कोल ब्लॉक आवंटन में अपना हित साधने में जुटे हुए थे।
पवित्र नौकरशाही
पारेख ने अपनी किताब में कई अन्य राजनीतिक दलों के सांसदों भी को ब्लैकमेलर और वसूली करने वाला करार दिया है। उन्होंने यह आरोप भी लगाया है कि कोलगेट मामले में सीबीआई जांच की सिफारिश अंतिम समय में पूरे मामले पर पर्दा डालने की नीयत से की गई थी। इसमें उनकी चिंता किसी सत्य का उद्घाटन करने से ज्यादा अपना बचाव करने की दिखाई पड़ती है। इस पुस्तक में कहीं भी पारेख ने अपनी या अन्य नौकरशाहों की किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी स्वीकार नहीं की है। केवल नेताओं, मंत्रियों और उनके सहयोगियों को चोर, बेईमान, दलाल और अपने स्वार्थ के लिए देश हित की बलि चढ़ाने वाला करार दिया है। उदाहरण के लिए, उन्होंने कहा है कि सार्वजनिक उपक्रमों के निदेशकों और सीईओ की नियुक्तियों में खुलेआम पैसा लिया जाता था। पारेख ने लिखा है कि 2004 में कोल इंडिया का सीएमडी बनाने के लिए मंत्रियों की ओर से अधिकारियों की ब्लैकमेलिंग भी जम कर हुई थी।
किताब के मुताबिक एक उम्मीदवार शशि कुमार को शिबू सोरेन और राज्यमंत्री डीएन राव ने मासिक भुगतान के लिए परेशान किया था। उन्हें साक्षात्कार के ठीक पहले कहा गया कि वे 50 लाख रुपया एकमुश्त चाहते हैं, साथ में 10 लाख रुपये का मासिक भुगतान भी। इस प्रस्ताव को कुमार ने ठुकरा दिया था। इसके बाद भी राव उनके पीछे पड़े रहे। जब कुमार ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, तो उनके खिलाफ सेंट्रल विजिलेंस कमिशन की जांच बिठा दी गई। पुस्तक विमोचन के मौके पर पारेख ने कहा कि यदि प्रधानमंत्री कोयला ब्लॉकों की खुली बोली जैसे सुधार के कदम उठाते तो करोड़ों रुपये के कोयला आवंटन घोटाले को रोका जा सकता था। पारेख ने कहा है कि 27 अगस्त 2012 को संसद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कोल सेक्टर को लेकर सरकारी पॉलिसी का जो बचाव किया था, वह गलत, खोखला और यकीन करने लायक नहीं था।
पारेख की बातें सच हो सकतीं हैं, पर प्रश्न यह है कि आपने तब इसके खिलाफ विद्रोह क्यों नहीं किया? प्रधानमंत्री के बयानों पर आपने तब प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी? आपके सामने देश लूटा जाता रहा और आप चुपचाप नौकरी करते रहे, तो फिर आप दोषी कैसे नहीं हैं? पूर्व सीएजी विनोद राय का पारेख पूरा बचाव कर रहे हैं, लेकिन जब राय की रिपोर्ट पर कांग्रेस पार्टी के लोग और सरकार के मंत्री हमला कर रहे थे, तब भी पारेख चुपचाप थे।
पारेख की बातें सच हो सकतीं हैं, पर प्रश्न यह है कि आपने तब इसके खिलाफ विद्रोह क्यों नहीं किया? प्रधानमंत्री के बयानों पर आपने तब प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी? आपके सामने देश लूटा जाता रहा और आप चुपचाप नौकरी करते रहे, तो फिर आप दोषी कैसे नहीं हैं? पूर्व सीएजी विनोद राय का पारेख पूरा बचाव कर रहे हैं, लेकिन जब राय की रिपोर्ट पर कांग्रेस पार्टी के लोग और सरकार के मंत्री हमला कर रहे थे, तब भी पारेख चुपचाप थे।
अब आएं संजय बारू की तरफ। पारेख की तरह बारू के संस्मरणों से भी मोटे तौर पर सहमति हो सकती है। यह तथ्य जगजाहिर है कि प्रधानमंत्री पद पर मनमोहन सिंह की नियुक्ति एक मजबूरी का नतीजा थी। वे न तो पूरी तरह स्वतंत्र थे, और न हो सकते थे। बारू के अनुसार उनके पास मंत्रियों के चयन तक की आजादी नहीं थी और वे सोनिया परिवार के कहने पर चलते रहे। लेकिन इसमें नया क्या है? यह भी बहस का विषय है कि एक प्रधानमंत्री को अपनी पार्टी या गठबंधन से नियंत्रणविहीन होना चाहिए या नहीं। बहरहाल, यहां मामला अलग है। बारू की बातों में कुछ अतिशयोक्तियां भी हैं। उनका स्थान प्रधानमंत्री कार्यालय में काफी नीचे था। सारी फाइलों या फैसलों तक उनकी पहुंच नहीं थी। ऐसे में कई जगह सूत्रों से मिली सूचना को सीधा वक्तव्य बताकर पेश किया गया है। खतरनाक आरोप इसके बावजूद, पुस्तक के कई तथ्य रोंगटे खड़े कर देते हैं।
मसलन, परमाणु संधि के समय समाजवादी पार्टी का साथ मिलना। बारू के अनुसार उन्हें कोलोराडो से एक अनाम फोन आया कि अमर सिंह अमेरिका में हैं, प्रधानमंत्री उनसे बात करें, वे सहयोग करना चाहते हैं। इसी प्रकार इजिप्ट में 2009 में हुई भारत-पाक शिखर वार्ता को भी बारू ने संदेह के दायरे में रखा है। उनके अनुसार राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की संभावना से भयभीत होकर मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के साथ बातचीत को तेजी से आगे बढ़ाया। उसी में बलूचिस्तान का मामला आ गया, जिसकी काफी आलोचना हुई। निस्संदेह, ये सारे मत लेखकों के हैं। लेकिन इससे प्रधानमंत्री कठघरे में तो खड़े होते ही हैं। मामला चाहे अपनी कुर्सी बचाने के लिए पाकिस्तान के साथ बातचीत में तेजी लाने का हो या भ्रष्टाचार को सहन करने का, ये सारे आरोप असाधारण हैं। देश हर हाल में इन आरोपों पर स्पष्टता की अपेक्षा रखता है।
मसलन, परमाणु संधि के समय समाजवादी पार्टी का साथ मिलना। बारू के अनुसार उन्हें कोलोराडो से एक अनाम फोन आया कि अमर सिंह अमेरिका में हैं, प्रधानमंत्री उनसे बात करें, वे सहयोग करना चाहते हैं। इसी प्रकार इजिप्ट में 2009 में हुई भारत-पाक शिखर वार्ता को भी बारू ने संदेह के दायरे में रखा है। उनके अनुसार राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की संभावना से भयभीत होकर मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के साथ बातचीत को तेजी से आगे बढ़ाया। उसी में बलूचिस्तान का मामला आ गया, जिसकी काफी आलोचना हुई। निस्संदेह, ये सारे मत लेखकों के हैं। लेकिन इससे प्रधानमंत्री कठघरे में तो खड़े होते ही हैं। मामला चाहे अपनी कुर्सी बचाने के लिए पाकिस्तान के साथ बातचीत में तेजी लाने का हो या भ्रष्टाचार को सहन करने का, ये सारे आरोप असाधारण हैं। देश हर हाल में इन आरोपों पर स्पष्टता की अपेक्षा रखता है।
सन्दर्भ -सामिग्री :http://navbharattimes.indiatimes.com/thoughts-platform/viewpoint/book-would-not-return-the-genie-in-the-bottle/articleshow/33828799.cms
मनमोहन सिंह
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (18-04-2014) को "क्या पता था अदब को ही खाओगे" (चर्चा मंच-1586) में अद्यतन लिंक पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सब स्पौंसर्ड जैसा लगता है :)
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख...
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