एक रवायती ग़ज़ल
ऐसे समा गये हो ,जानम मेरी नज़र में
तुम को ही ढूँढता हूँ हर एक रहगुज़र में
इस दिल के आईने में वो अक्स जब से उभरा
फिर उसके बाद कोई आया नहीं नज़र में
पर्दा तो तेरे रुख पर देखा सभी ने लेकिन
देखा तुझे नुमायां ख़ुरशीद में ,क़मर में
जल्वा तेरा नुमायां हर शै में मैने देखा
शम्स-ओ-क़मर में गुल में मर्जान में गुहर में
वादे पे तेरे ज़ालिम हम ऐतबार कर के
भटका किए हैं तनहा कब से तेरे नगर में
आये गये हज़ारों इस रास्ते पे ’आनन’
तुम ही नहीं हो तन्हा इस इश्क़ के सफ़र में
-आनन्द.पाठक
09413395592
शब्दार्थ
शम्स-ओ-क़मर में =चाँद सूरज में
मर्जान में ,गुहर में= मूँगे में-मोती में
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (26-04-2014) को ""मन की बात" (चर्चा मंच-1594) (चर्चा मंच-1587) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आ0 शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंआप का बहुत बहुत धन्यवाद इस ग़ज़ल को चर्चा मंच पर लगाने का
सादर
अति सुन्दर...खूबसूरत कथ्य...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आप का
जवाब देंहटाएंAnand pathak