नफ़रत की होलिका जलाएं, रंग चलो प्यार के लगाएं
रस्में जो हो गईं पुरानी
जैसे कि ठहरा हुआ पानी
चेतना की नई लेखनी से
नए दौर की लिखें कहानी
’वसुधैव कुटुम्बकम’-की धुन पे, गूंज उठें वेद की ऋचाएं
कोसने से क्या भला मिलेगा
अँधियारा तो नहीं मिटेगा
हौसले से मुठ्ठियाँ जो भींचो
ज़मीं तो क्या, आस्मां हिलेगा
उठती दीवार जब गिराएं, आयेंगी सन्दली हवाएं
बातें जो बीत गई ,छोड़ो
दो दिल के बीच सेतु जोड़ो
रूढियां जो रोकतीं हों राहें
मिल के उन रूढियों को तोड़ो
अंगद-सा एक पाँव रख दो ,टूटने लगेंगी वर्जनाएं
तितलियों के पंख तुम कतर के
किस पे पौरुष जता रहे हो ?
ये तो कोई वीरता नहीं है
जैसा कि तुम बता रहे हो
मन से कभी भाग न सकोगे, घेरती रहेंगी चेतनाएं
सड़कों पे भीड़ उतर आई
मौसम नें ली हैं अँगड़ाई
कल तक जो आम आदमी था
उसने आवाज़ तो उठाई
भरने दो रंग तूलिका से ,उसकी जो भी हैं कल्पनाएं
नफ़रत की होलिका जलाएं-रंग चलो प्यार के लगाएं ।
-आनन्द.पाठक-
09413395592
बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंआ0 जोशी जी
हटाएंउत्साह वर्धन के लिए आभारी हूँ
सादर
-आनन्द.पाठक
आ0 शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंइस शुभ कार्य हेतु आप का बहुत बहुत धन्यवाद
सादर
-आनन्द.पाठक