आदरणीय बाबू जी,
सादर नमस्कार!
अभी-अभी ब्लॉग पर आपकी पुस्तक'सुख का सूरज' पर निम्न विचार प्रस्तुत किए हैं; आपको उसकी प्रतिलिपि नीचे भेज रहे हैं! कृपया अपनी राय देना कि आपको कैसे लगे?
विलम्ब के लिए क्षमा करेंगे!
शेष शुभ!
सादर/सप्रेम,
सारिका मुकेश
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‘सुख का सूरज’ को पढ़ने का अनुभव
ऊसर जमीन में हम, उपहार बो रहे हैं
हम गीत और ग़ज़ल के उद्गार ढो रहे हैं !!
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प्रीत और मनुहार लेकर आ रहे हैं !
हम हृदय में प्यार लेकर आ रहे हैं !!
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हिंदी ब्लॉग जगत् अर्थात् हिंदी चिट्ठा जगत में जनवरी 2009 से प्रतिदिन अपनी उपस्थित दर्ज़ कराने वाले अनेकानेक लोगों के परम प्रिय डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ की पुस्तक ‘सुख का सूरज’ को पढ़ने का अनुभव कुछ ऐसा ही है जैसे कि जाड़े के मौसम में कई दिनों तक कोहरा छाए रहने के उपरांत आपको एकाएक ही एक दिन कुनकुनी धूप में देरों तक बैठने का सुख मिल जाए...
"वो आये हैं मन के द्वारे
इक अरसे के बाद
महक उठे सूने गलियारे
इक अरसे के बाद..."
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इस पुस्तक की भूमिका लिखने का दायित्व श्री सिद्धेश्वर सिंह जी ने शानदार ढंग से बखूबी निभाया है! उन्होंने लेखक और पुस्तक की विषय-वस्तु, दोनों के साथ ही पूर्ण रूप से न्याय किया है, इसके लिए वो अवश्य ही साधुवाद के पात्र हैं!
"शिष्ट मधुर व्यवहार, बहुत अच्छा लगता है
सपनों का संसार बहुत अच्छा लगता है..."
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मधुर भाषी, शिष्ट व्यवहार में कुशल और आत्मीयता से भरपूर डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी व्यक्तिगत तौर पर छंदबद्ध और गेय रचनाओं को ही कविता मानते हैं! छन्दमुक्त कविताओं को पढ़ना भी उन्हें अच्छा तो ज़रूर लगता है पर यह उसे आज भी गद्य ही मानते हैं! शायद यही कारण है की इनकी सभी कविताएँ छन्दबद्ध और गेय शैली में लिखी गई हैं पर इसके लिए कहीं भी यह जोड़-तोड़ करते दिखाई नहीं देते अपितु यह सब स्वत: होता चला जाता है मानों यह सब कुछ किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा रचा जा रहा है और वो तो बस माध्यम मात्र हैं! अगर हम गौर करें तो सच्चे अर्थों में यही तो हमारे जीवन का सार भी है: हम सब निमित्त मात्र ही तो हैं कर्ता तो ‘वो’ ही है, पर हम जीवन भर इस रहस्य को या तो समझते नहीं या ‘मैं’ के अहंकार से बाहर नहीं आ पाते परंतु डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी यह बात स्वयं स्वीकार करते हुए लिखते हैं:
"नहीं जानता कैसे बन जाते हैं, मुझसे गीत ग़ज़ल
ना जाने मन के नभ पर, कब छा जाते गहरे बादल..."
माँ सरस्वती अपना वरद हस्त हर किसी पर नहीं रखतीं परंतु डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी सौभाग्य से माँ सरस्वती के कृपा-पात्र बन सके, इसके लिए उनका आभार प्रगट करते हुए कहते हैं:
"जिन देवी की कृपा हुई है, उनका करता हूँ वन्दन
सरस्वती माता का करता, कोटि-कोटि हूँ अभिनंदन...!!"
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी ने गाँव/देहात/कस्बों से लेकर शहर और महानगर तक को स्वयं बहुत करीब से देखा और जाना है, इसीलिए उनकी कविताएँ ज़मीनी तौर पर जब उनका चित्रण करती हैं तो सब एकदम सजीव हो उठता है! उन्होंने अपने घर के वातानुकूलित कमरे में बंद होकर भूख,बेबसी, लाचारी, गरीबी, सामाजिक विषमताओं आदि विषयों पर कविताएँ नहीं लिखी हैं बल्कि उन्हें स्वयं करीब से देखा है और ऐसा लगता है कि उन्होंने किसी हद तक अंतर्मन में कहीं न कहीं उसे भोगा भी है! गाँव से उन्हें बेहद आत्मीयता है ! शहर में कई बरस रहने के बावजूद भी उन्हें रह-रहकर जब-तब गाँव की याद आती है और वो उन्हें याद करते हुए नहीं थकते;आप यह खुद ही देख लीजिए:
"गाँव की गलियाँ, चौबारे
याद बहुत आते हैं
कच्चे घर और ठाकुरद्वारे
याद बहुत आते हैं..."
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"भोर हुई चिड़ियाँ भी बोली
किन्तु शहर अब भी अलसाया
शीतल जल के बदले कर में
गर्म चाय का प्याला आया
खेत-अखाड़े हरे सिंघाड़े
याद बहुत आते हैं..."
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इसके अतिरक्त भी और ना जाने कितना ही कुछ ऐसा है जो गाँव से शहर आते वक़्त वहीं पर छूट गया पर स्मृति-कोश में अभी तक ताज़ा बना हुआ है ! आज भी वो मटकी का ठंडा पानी, नदिया-नाले, संगी-ग्वाले, चूल्हा-चौका, मक्के की रोटी,गौरी गईया, मिट्ठू भैया, बूढ़ा बरगद, काका अंगद मन से कहाँ विदा ले सके हैं ! गाँव की याद करके तो मन में आज भी एक कसक-सी उठती है और अक्सर यही लगता है:
"छोड़ा गाँव, शहर में आया
आलीशान भवन बनवाया
मिली नहीं शीतल-सी छाया
नाहक ही सुख चैन गंवाया...."
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एक तरफ़ गाँव की पुरानी स्मृतियाँ हैं और दूसरी ओर आज के दौर का भयावह सच ! वैश्वीकरण के इस युग में आज मानवीय मूल्यों/संबंधों में खोखलापन, नकलीपन, बनावट ने अतिक्रमण कर लिया है और पैसा ही सब कुछ होता जा रहा है! आज हम सब गलाकाट प्रतियोगिता में शामिल हो चुके हैं ! नाम, शौहरत, पुरस्कार, सम्मान और पैसे के लिए हम अंधी दौड़ में लगे हैं, उसके लिए चाहे किसी का भी गला काटना पड़े, चाहे उन कंधों को भी तोड़ना पड़े जिन पर हम खड़े होकर बुलंदियों को छू रहे हों...वर्तमान में ऐसे परिवेश का अध्ययन करते हुए चिंताग्रस्त से दीखते डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी आज के दौर की भयावह सच्चाइयों के विषय में यूँ लिखते हैं:
"सम्बन्ध आज सारे व्यापार हो गए हैं
अनुबंध आज सारे बाज़ार हो गए हैं
जीवन के हाशिए पर घुट-घुट के जी रहे हैं
माँ-बाप सहमे-सहमे गम अपना पी रहे हैं
कल तक जो पालते थे अब भार हो गए हैं
सब टूटते बिखरते परिवार हो गए हैं..."
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"खो गया जाने कहाँ है आचरण?
देश का दूषित हुआ वातावरण!!..."
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"मुखौटे राम के पहने हुए रावण ज़माने में !
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर लगे खाने-कमाने में !!
दया के द्वार पर, बैठे हुए हैं लोभ के पहरे
मिटी संवेदना सारी, मनुज के स्त्रोत हैं बहरे
सियासत के भिखारी व्यस्त हैं कुर्सी बचाने में
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर लगे खाने-कमाने में !..."
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वो रहते भव्य भवनों में, कभी थे जो वीराने में!
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श्रमिक का हो रहा शोषण, धनिक के कारखाने में
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"राजनीति परिवार नहीं है
भाई-भाई में प्यार नहीं है
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"क्या दुनिया की शक्ति यही है
छल प्रपंच को करता जाता
अपनी झोली भरता जाता
झूठे आँसू आँखों में भर
मानवता को हरता जाता
हाँ कलियुग का व्यक्ति यही है ..."
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अजीब दौर है ये, आज रक्षक ही भक्षक बन गए हैं ! कुत्तों को चमड़ी की हिफाज़त करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है ! ऐसी ही कुछ स्थिति की विषमताओं पर उनका यह कटाक्ष देखिए:
"धरा रो रही है, गगन रो रहा है
अमन बेचकर आदमी सो रहा है
सहमती-सिसकती हुई बन्दगी है !
जवानी में थकने लगी ज़िन्दगी है !!
जुगाड़ों से चलने लगी ज़िन्दगी है !!! ..."
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"कृष्ण स्वयं द्रौपदी की लूट रहे लाज
चिड़ियों के कारागार में पड़े हुए हैं बाज़..."
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"कैसे मैं दो शब्द लिखूँ और कैसे उनमें भाव भरूँ?
परिवेशों के रिश्ते छालों के, कैसे अब घाव भरूँ?...."
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"रेतीले रजकण में कैसे, शक्कर के अनुभव भरूँ? ..."
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परंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वो इस स्थिति से निराश हैं, बल्कि वो पूरी तरह से आशान्वित हैं कि हमारे प्रयासों से स्थिति ज़रूर बदलेगी ! जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं ! समय के साथ बहुत कुछ बदलता है ! परंतु जीवन में आशा के महत्त्व को वो बखूबी जानते हैं:
"युग के साथ-साथ, सारे हथियार बदल जाते हैं
नौका खेवन वाले, खेवनहार बदल जाते हैं..."
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"कभी कुहरा, कभी सूरज
कभी आकाश में बादल घने हैं
दु:ख और सुख भोगने को
जीव के तन-मन बने हैं !!..."
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"आशा पर संसार टिका है
आशा पर ही प्यार टिका है...."
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"आशाओं में बल ही बल है
इनसे जीवन में हलचल है...
आशाएं हैं तो सपने हैं
सपनों में बसते अपने हैं...
आशाएं जब उठ जायेंगी
दुनियादारी लुट जायेंगी
उड़नखटोला द्वार टिका है ...."
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"करोगे इश्क़ सच्चा तो, दुआएं आने वाली हैं !
दिल-ए-बीमार को, देने दवाएं आने वाली हैं !!..."
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"लक्ष्य है मुश्किल बहुत ही दूर है
साधना मुझको निशाना आ गया है...."
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"हाथ लेकर हाथ में जब चल पड़े
साथ उनको भी निभाना आ गया है...."
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यह उनका आशावादी दृष्टिकोण ही तो है जो इतनी विषमताओं के बावजूद सुबह-सवेरे बोलती चिड़ियाएं, खेतों में झूमते हुए गेहूँ की बालियाँ, झूमकर इठलाती हँसती लहराती हुई सरसों, फागुन की फगुनिया, पेड़ो पर कोपलिया लेकर आया मधुमास, धुल उड़ाती पछुआ, नाचते हुए मोर, बसंत की ऋतू, मूंगफली, गज़क रेवड़ी चाट-पकोड़ी पेड़ों पर चहकती चिड़िया, छम-छम बजती गोरी की पायलियाँ, चहकती-महकती सूनी गलियाँ, महकती हुई बालाएं और बुढ़िया, गुंजार करते भौरे, टेसुओं के फूल, गति हुई कोयल,मस्त होकर बल खाती हुई कचनार की कच्ची कली सब कुछ उनको अपनी ओर आकर्षित करते हुए उनकी कविताओं का हिस्सा बन जाते हैं और प्रकृति के ऐसे ही दृश्यों में खोकर डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी श्रंगार की कविता रच डालते हैं ! कुछ पंक्तियाँ देखिए:
"खिल उठा सारा चमन, दिन आ गए हैं प्यार के !
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के !!..."
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"गुनगुनी सी धूप में, मौसम गुलाबी हो गया!
कुदरती नवरूप का, जीवन शराबी हो गया !!...."
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"प्रीत है एक आग, इसमें ताप जीवन भर रहे...."
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"बादल तो बादल होते हैं
नभ में कृष्ण दिखाई देते
निर्मल जल का सिन्धु समेटे
लेकिन धुआँ-धुआँ होते हैं...."
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"सोचने को उम्र सारी ही पड़ी है सामने
जीत के माहौल में, क्यों हार की बातें करें
प्यार के दिन हैं सुहाने, प्यार की बातें करें!!...."
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"धड़कन जैसे बंधी साँस से
ऐसा गठबंधन कर लो
पानी जैसे बंधा प्यास से
ऐसा परिबंधन कर लो..."
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"हाथ लेकर जब चले तुम हाथ में
प्रीत का मौसम सुहाना हो गया...."
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उनके मन में एक आदर्श वतन/मानव की छवि है जिसे वो साकार देखना चाहते हैं ! उनकी यह कामना कहीं-कहीं स्पष्ट दीखती है:
"आदमी से न इंसानियत दूर हो
पुष्प, कलिका सुगंधों से भरपूर हो...."
....
"मन सुमन हों खिले, उर से उर हों मिले
लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए
ज्ञान-गंगा बहे, शांति और सुख रहे
मुस्कराता हुआ वो वतन चाहिए..."
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मौजूदा परिस्थितयों में बदलाव के लिए हम सभी का योगदान आवश्यक है ! अब यह सर्वविदित है कि अंतर्जाल के माध्यम से आज सभी को अपने को अभिव्यक्त करने का वर्चुअल स्पेस मिला है ! हम ब्लॉग/ट्वीटर/फेसबुक आदि के माध्यम से प्रतिदिन अपने को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त करते हैं ! आज के साहित्य/लेखन पर चिंता जताते हुए वो आश्चर्य चकित होकर लिखते हैं:
"जीवन की अभिव्यक्ति यही है
क्या शायर की भक्ति यही है ...."
लेखन के प्रति सजगता बरतने हेतु वो लिखते हैं:
"शब्द कोई व्यापार नहीं है
तलवारों की धार नहीं है ...."
इतिहास गवाह है कि अगर कुछ सार्थक लिखा जाए तो वो न केवल आज के लिए बल्कि युगों-युगों के लिए लोगों के दिलों में अपनी पहचान छोड़ जाता है...आने वाली पीढ़ी को नयी दिशा दे जाता है ! हम सभी जानते हैं कि चाहे रामायण हो या गीता/महाभारत ऐसे अनेकों ग्रन्थ आदिकाल से हमारी चाहत का केंद्र बने रहे हैं और आज भी हैं...श्री राजेन्द्र राजन जी के गीत की पंक्तियाँ याद आती हैं: धन दौलत कोठी कारों का सुख तो हमको भी संभव है/ लेकिन हमसे रामायण-सा अब कोई ग्रंथ असंभव है/तुलसी की भाँति हमारा कल जग में सत्कार कहाँ होगा...मानव का जन्म विशिष्ट है, उसे ऐसे कुछ सार्थक और महान कार्य करने ही चाहिएं जो युगों तक उसकी गाथा कहें...तभी इस जन्म की सार्थकता है ! ऐसी ही मनोदशा में डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी लिखते है:
"चरण-कमल वो धन्य हैं
समाज़ को जो दें दिशा
वे चाँद तारे धन्य हैं
हरें जो कालिमा निशा..."
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"जो राम का चरित लिखें
वो राम के अनन्य हैं
जो जानकी को शरण दें
वो वाल्मीकि धन्य हैं..."
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"अपने को तालाबों तक सीमित मत करना
गंगा की लहरों-धाराओं से मत डरना
आंधी, पानी, तूफानों से लड़ते जाओ !
पथ आलोकित है, आगे को बढ़ते जाओ !!
उत्कर्षो के उच्च शिखर पर चढ़ते जाओ !
पथ आलोकित है, आगे को बढ़ते जाओ !!..."
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"चरैवेति के मूल मंत्र को
अपनाओ निज जीवन में
झंझावतों के काँटे
पगडंडी पर से हट जाएँ ...."
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अंत में अपनी वाणी को यहीं पर विश्राम देते हुए हम आप सबसे यही गुज़ारिश करेंगे कि एक बार आप स्वयं इस ‘सुख के सूरज’ के सान्निध्य का पूरा-पूरा लाभ उठाएं ! धन्यवाद!!
--डॉ. सारिका मुकेश
पुस्तक का नाम: सुख का सूरज
ISBN:987-93-80835-01-3
लेखक: डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
(मोबाइल: 9997996437)
प्रकाशक: आरती प्रकाशन,
लालकुआं, नैनीताल (उत्तराखण्ड)
प्रकाशन वर्ष: 2011
मूल्य: 100/- रु. मात्र
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बहुत सुन्दर पुस्तक समीक्षा ! वास्तव में शास्त्री जी को माँ सरस्वती का वरदान प्राप्त है !जिस विषय पर लिखते है उसमे मधुत रस आ जाता है ! सुन्दर समीक्षा के लिए आपको भी बधाई !
जवाब देंहटाएंमकर संक्रांति की शुभकामनाएं !
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सुंदर समीक्षा !
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