दोराहे पर खडा 445 वीं पोस्ट
ए बन्दे हर घडी हर पल सदा
क्यों
दोराहे पर जा तू खडा होता हैं
राहे
सुकर्म अपना जो भय व चिन्ता
से मुक्ति
का बेशकीमती भंडार हैं
संभलना
राहे दुनिया में देख यहाँ पर
फैले
चिन्ता, भय के अटूट भंडार हैं
हैरां
तू चलना तो चाहता राहे सुकर्म
पर
कदम राहे दुनिया में कहीं जाते हैं
सज्जन
को मंदिर में जाना पर कदम
क्यों
वेश्या की नृत्यशाला पर लाते हैं
कशमकश
भरी जिन्दगी तू कैसे जीता
रे मानव
जो दोराहे पर खडा खोता हैं
क्यों
नही कदम तेरे वश में जो तू
जीवनपर्यन्त
ऐसे भटककर रोता हैं
अपने
कदमों इरादों व नियत की तू
लगाम
हाथ में रख क्यों न सोता हैं
पथिक
अनजाना
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