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गुरुवार, 1 अगस्त 2013

हार जीत

पाने को आतुर रहतें हैं  खोने को तैयार नहीं है
जिम्मेदारी ने
मुहँ मोड़ा ,सुबिधाओं की जीत हो रही.

साझा करने को ना मिलता , अपने गम में ग़मगीन हैं
स्वार्थ दिखा जिसमें भी यारों उससे केवल प्रीत हो रही .

कहने का मतलब होता था ,अब ये बात पुरानी  है
जैसा देखा बैसी बातें  .जग की अब ये रीत हो रही ...

अब खेलों  में है  राजनीति और राजनीति ब्यापार हुई
मुश्किल अब है मालूम होना ,किस से किसकी मीत हो रही

क्यों अनजानापन लगता है अब, खुद के आज बसेरे में
संग साथ की हार हुई और  तन्हाई की जीत हो रही
 प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

6 टिप्‍पणियां:

  1. अक्सर तन्हाई जीत जाती है
    बहुत खूब, सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अनेकानेक धन्यवाद सकारात्मक टिप्पणी हेतु.

      हटाएं
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज शुक्रवार (02-08-2013) को सुना लतीफा पाक ने, कैप्टन सौरभ क़त्ल : चर्चा मंच 1325 में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  3. स्वार्थ और प्रीत ,दोनों ही दीखते है परन्तु प्यार की अलग भाषा है
    बहुत सुन्दर
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. कहने का मतलब होता था ,अब ये बात पुरानी है
    जैसा देखा बैसी बातें .जग की अब ये रीत हो रही ...

    ---क्या खूब कहा है....अति सुन्दर .....

    ----पेश है ...

    कुछ भी कहदो सब चलता है अब तो बस यह रीति होरही
    धन से धन की छल से छल की यारो मैत्री खूब हो रही |

    जवाब देंहटाएं