मित्रों!

आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं।

बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए।


फ़ॉलोअर

बुधवार, 14 अगस्त 2013

गीता दूसरा अध्याय आठवें श्लोक सहित (आठवें से सोलहवें श्लोक तक )

गीता दूसरा अध्याय आठवें श्लोक सहित (आठवें से सोलहवें श्लोक तक )

आठवां श्लोक :

अर्जुन कह रहे हैं -पृथ्वी पर निष्कंटक समृद्ध राज्य तथा देवताओं का स्वामित्व प्राप्त कर भी मैं ऐसा कुछ नहीं

देखता हूँ,जिससे हमारी इन्द्रियों को सुखाने वाला शोक दूर हो जाए।

मेरी इन्द्रियों के अन्दर जो नैराश्य आ रहा है मैं उसे देख नहीं पा रहा हूँ। मेरे अन्दर जो शोक पैदा हो रहा है मुझे

नहीं लगता वह दूर हो पायेगा। संसार की सम्पन्नता से ,संपत्ति से ,स्वर्ग लोक के राज्य की प्राप्ति से भी यह

भय और नैराश्य नहीं जाएगा। यह वैसे ही है जैसे किसी व्यक्ति को बहुत प्यास लगी हो और आप उसे केसर

वाला दूध पिलायें या फिर शर्बत दे दें।   अन्दर की प्यास तो सिर्फ पानी से ही बुझेगी  क्योंकि प्यास से सिर्फ

कंठ

ही नहीं सूखता है शरीर की सारी  कोशायें सूखती हैं।जल मिलने पर सारी  कोशायें ही तृप्त हो जातीं हैं सिर्फ

कंठ नहीं।

ऐसे ही आदमी के अन्दर की प्यास जायेगी अच्छाई भरे लोगों के संग साथ से। अर्जुन कह रहें हैं यदि हमें

देवताओं का भी स्वामी बना दिया जाए तो भी लगता है हमारी इन्द्रियों का विक्षोभ और भय  ,नैराश्य ,अवसाद

दूर नहीं हो पायेगा।

नौवां श्लोक :


संजय बोले -हे राजन ,निद्रा को जीतने वाला ,अर्जुन ,शत्रुओं को तपाने वाले 

अर्जुन ,अन्तर्यामी श्री कृष्ण 

भगवान से "मैं युद्ध नहीं करूंगा "कहकर चुप हो गया। 

दसवां श्लोक :

उस अर्जुन के प्रति जो विषाद कर रहा है घुंघराले केश वाले ऋषि केश बोले 

-जो अपनी इन्द्रियों का मालिक है वाही गोविन्द है। 

संजय धृत राष्ट्र से बोले जिनके घुंघराले बाल हों ऐसे भगवान के प्रति 

अर्जुन ने कहा (कृष्ण को इसीलिए ऋषि केश कहा गया है क्योंकि उनके 

घुंघराले बाल हैं ,कृष्ण का एक नाम गोविन्द है ,जो अपनी इन्द्रियों का 

मालिक है वह  गोविन्द है दोनों निद्रा जीत हैं भगवान भी अर्जुन भी )मैं 

एक दम से थक गया हूँ। मेरी गति रुक गई 

है। उस अर्जुन के प्रति भगवान हँसते हुए बोले -देखने वाली बात यह है ऐसी 

विषम परस्थिति में भी भगवान हंस रहें हैं। इसी का नाम गीता है। हर हाल 


में जो हंस सके विषम से विषम परिस्थिति में भी जो अपने मन के 


स्वास्थ्य को बरकरार रख सके वही गीता के मर्म को समझा है। वही सच्चा 

कर्मयोगी है।  

ग्यारहवां श्लोक :

श्री भगवान बोले -हे अर्जुन ,तुम ज्ञानियों की तरह बात करते हो ,लेकिन 


जिनके लिए शोक नहीं करना चाहिए उनके लिए शोक करते हो। ज्ञानी मृत 

या जीवित किसी के लिए भी शोक नहीं करते। 

भगवान यहाँ से बोलना आरम्भ कर रहे हैं। अरे ओ अर्जुन जिनके लिए 

शोक नहीं करना चाहिए उनके लिए तू शोक कर रहा है और बुद्धिमानों की 

तरह बोल रहा है। जो सत्य के दृष्टा होते हैं वह कभी भी शोक नहीं करते। 

पदार्थ दिखाई पड़ता है अ -पदार्थ (ऊर्जा )दिखलाई नहीं देता। व्यक्ति तो 

जन्म के बाद से ही मर रहा है। ग्यानी लोग उन दोनों ही चीज़ों के लिए जो 

मर रहीं हैं और जो जड़ हैं टिकी हुई हैं थिर हैं शोक नहीं करते। तुम बोल 

कुछ रहे हो ज्ञानियों की तरह ,तुम्हारी देह मुद्रा ,मुख मुद्रा कुछ और कह 

रही है। सिर्फ ज्ञान के हमारी वाणी में ही दौड़ते रहने का कोई मतलब नहीं 

होता जब तक के वह हमारे व्यवहार में न आये ,वह व्यर्थ हो जाएगा जब 

तक - हम उसे एक मेथड एक टेक्नालाजी न बना सकें। 

ज्ञान की बातें तो वे लोग भी बहुत करते हैं जो व्हिस्की खोल के बैठ जाते हैं 

बीच बीच में नमकीन खाते रहतें हैं -

यहाँ किसकी रही है किसकी रहेगी ,

सब कुछ खत्म हो जाएगा ,सिर्फ व्हिस्की रहेगी। 

अगर आप अच्छे हो ज्ञानी हो तो आपका ज्ञान आपके व्यवहार  से प्रकट 

होना चाहिए  परम ज्ञान की बातें तो आजकल के राजनीतिक धंधे बाज़ भी 

कर लेते हैं।पहाड़ में पानी होता है तो झरने की तरह दिखलाई भी देता है 

सोता बनके फूटता भी है। ज्ञानी व्यक्ति किसी भी हालत में दुखी नहीं होता 

है।शोक नहीं करता है। सिर्फ मस्तिष्क में रखने से कुछ नहीं होता ज्ञान को 

धारण करना चाहिए। 

बारहवां श्लोक :

ऐसा नहीं है ,मैं किसी समय नहीं था ,अथवा तुम नहीं थे या ये राजा लोग 

नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। जैसे इस शरीर 

में ही बाल्यकाल ,युवा और वृद्धा वस्था आती है वैसे ही आत्मा में अनेक 

शरीर आते रहते हैं। 

बे -होशी पूर्वक किये गए पुण्य से होश में रहते किया गया पाप बेहतर है। 

गधे की पीठ पर चन्दन का बोझ हो उसका कोई मतलब नहीं है। 

जो वासुदेव के पुत्र हैं हमारे जीवन को देव बनाने में समर्थ हैं। जो हमें चारों 

तरफ से एक बेहद के आकर्षण से खींचते हैं वही कृष्ण सारी दुनिया के एक 

मात्र गुरु हैं।  देवकी (हमारी बुद्धि )के आनंद को बढ़ाने  वाले  ऐसे कृष्ण को 

हम प्रणाम करते हैं। 

अर्जुन जो क्षत्रीय होता है उसका सारा व्यक्तित्व अहंकार का है ,ब्राहमण 

का ज्ञान का ,वैश्य का सेवा व्यापार का। 

मजेदार बात देखिये -"मेरा जो मोह है वह चला गया है "कहने के बाद भी 

अर्जुन सवाल पूछते रहते हैं। लगता है अर्जुन ने सांसारिक लोगों की तरफ 

से भी अनेक सवाल पूछे हैं। मैं शरणागत हूँ का मतलब है मैंने अहंकार 

आपके चरणों में रख दिया है। अब बाकी तो यहाँ अर्जुन की जिज्ञासा 

बोलती है। 

तेरहवां श्लोक :

जैसे इसी जीवन में जीवात्मा बाल ,युवा और वृद्ध शरीर प्राप्त करता है ,वैसे 

ही जीवात्मा मृत्यु के बाद दूसरा शरीर प्राप्त करता है। इसलिए धीर मनुष्य 

को मृत्यु से घबराना नहीं चाहिए। 

आठ साल के बालपन को छोड़ व्यक्ति जब बीस साल का होता है तो क्या 

कभी इस बात के लिए रोता है अरे मैं तो आठ साल का था। आधी उम्र तो 

निकल गई और देखो लगता है यह तो कल की ही बात थी। अक्सर ऐसी 

बातें कहते सुना  जाता हैं आदमी को। जैसे एक ही ट्रेन अनेक स्टेशनों से 

गुज़रती है ऐसे ही जीवन में भी अनेक स्टेशन (पड़ाव )आते रहते हैं। ऐसे ही 

जैसे हर स्टेशन  पर  नए नए लोग मिलते रहतें हैं ऐसे ही आत्मा को एक 

शरीर 

छोड़ दूसरे में जाने पर नए नए सम्बन्धी मिलते रहते हैं। सच्चाई को 

जानने वाले इस विषय में चिंतित नहीं होते हैं।काल कुछ भी नहीं छोड़ता 

है। हम जैसे दस साल के थे आज वैसे नहीं हैं।  भगवान कहतें  हैं यदि 

आपका भरोसा टूट रहा है तो समझो आप बूढ़े हो गए। बस किसी भी काल 

में चिंता न करो वक्त कैसा भी हो। 

(१४ )हे अर्जुन ,इन्द्रियों के विषयों से संयोग के कारण होने वाले सर्दी -

गर्मी 

और सुख -दुःख क्षण भंगुर और अनित्य हैं ;इसलिए हे अर्जुन ,तुम उसको 

सहन करो। इनके पीछे भागोगे तो इनका अंत नहीं है। 

भगवान कह रहे हैं- हे  भारत वंशियों इन्द्रियों और विषयों के संयोग से होने 

वाला सब सुख अस्थाई है।सर्दी -गर्मी ,सुख -दुःख देने वाले इन्द्रियों और 

विषयों  के संयोग हैं ,अनित्य हैं इनसे घबराना मत। ये सब आने जाने 

वाली चीज़ें हैं। इन्हें बहुत ज्यादा महत्व न दो। ये सब शरीर का विषय हैं 

थोड़ा सा सहन करो इन्हें। क्योंकि ये हैं ही बहुत थोड़े से समय के लिए। 

अकबर ने एक बार बीरबल से कहा बीरबल कुछ ऐसा बताओ जिससे सुखी 

और दुखी व्यक्ति दोनों ही प्रसन्न हों। बीरबल ने एक लाइन लिख दी -यह 

भी बीत जाएगा। फंसो मत एवरी थिंग इज टेम्पोरेरी। परिवर्तन ही नित्य 

है। सुख और दुःख तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।इस श्लोक की आत्मा है 

सहन शीलता ही धर्म है। तपस्या है। आम मीठा होता जब गर्मी ज्यादा 

होती है बादल भी तभी बरसता है।   

(१ ५ )हे पुरुष श्रेष्ठ ,दुःख और सुख में समान भाव से रहने वाले जिस 

धीर 

मनुष्य को इन्द्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर पाते ,वह मोक्ष का 

अधिकारी होता है।

इस श्लोक में भगवान सहन शीलता को ही मोक्ष का कारण मानते हैं। हे 

पुरुषों में श्रेष्ठ दुःख और सुख को समान समझने वाले जिस व्यक्ति को 

ये इन्द्रियों के विषय विचलित नहीं करते ,स्वाद जिसे विचलित नहीं करता 

,रूप जिसे लुभाता नहीं है (रूप दृष्टि तथा स्वाद जिभ्या का विषय है ) वही 

मोक्ष का अधिकारी है। जो इनमें आसक्ति रखता है  वह बंधन में फंस 

जाता है।  जब कोई भी परिस्थिति हमें विचलित नहीं कर पाये , हम 

परमात्मा प्राप्ति के अधिकारी बन जायेंगे  . जब हम इनसे प्रभावित न हो 

इन परिस्थितियों को ही प्रभावित करने लगतें हैं तब हमें अमृत की प्राप्ति 

होती है। किसी भी स्थिति में हाथ खड़े नहीं करने हैं। 

(ज़ारी )

ॐ शान्ति 





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें