बात ग़ज़ल की----अंदाज़े बयां श्याम का....
गज़ल दर्दे-दिल की बात
बयाँ करने का सबसे माकूल व खुशनुमां अंदाज़ है। इसका शिल्प भी अनूठा है।
नज़्म व रुबाइयों से जुदा। इसीलिये विश्व भर में व जन-सामान्य में
प्रचलित हुई। हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती। परन्तु हाँ,घनाक्षरी-छंद ( कवित्त ) का शिल्प अवश्य ग़ज़ल की ही पद्धति का शिल्प है जिसमें रदीफ़ व काफिया के ही
शब्द-भाव रहते हैं और गैर-रदीफ़ ग़ज़ल के भाव भी, परन्तु
मतला नहीं होता। मेरे विचार से शायद
कवित्त-छंद, ग़ज़ल
का मूल प्रारम्भिक रूप है।
उदाहरण देखिये....निम्न घनाक्षरी में
“रही”
रदीफ़ है एवं शरमा व हरषा...आदि काफिया हैं.....
“ गाये कोयलिया तोता मैना बतकही करें,
कोंपलें लजाईं कली
कली शरमा
रही।
झूमें नव पल्लव चहक
रहे खग वृन्द,
आम्र बृक्ष बौर आये, ऋतु हरषा
रही। “
--- डा श्याम गुप्त
नव कलियों पे हैं भ्रमर दल गूँज रहे,
घूंघट उघार कलियाँ भी मुस्कुरा रहीं |
झांकें अवगुंठन से नयनों के बाण छोड़ ,
विहंसि विहंसि वे मधुप को लुभा रहीं ||
इसी प्रकार गैर-रदीफ़
ग़ज़ल का प्रारूप घनाक्षरी
देखें --- जिसमें पदांत
स्वयं सुजानी ...पुरानी आदि काफिया है।
“थर थर थर थर कांपें सब नारी नर,
आई फिर शीत ऋतु सखि
वो सुजानी।
सिहरि सिहरि उठे
जियरा पखेरू सखि,
उर मांहि उमंगाये
प्रीति वो पुरानी।
बाल वृद्ध नर नारी
बैठे धूप ताप रहे,
धूप भी है कुछ
खोई-सोई अलसानी।
शीत की लहर तीर भांति
तन वेधि रही,
मन उठे प्रीति की वो
लहर अजानी।”
---डा श्याम गुप्त
हम लोग हिन्दी फिल्मों
के गीत सुनते हुए बड़े हुए हैं जिनमें
वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की सुविधा हेतु
गज़ल व नज़्म को भी गीत की भांति
प्रस्तुत किया जाता रहा है। यथा साहिर
लुधियानवी की प्रसिद्द ग़ज़ल ...
संसार से भागे फिरते
हो संसार को तुम क्या पाओगे।
इस लोक को भी अपना न
सके उस लोक में भी पछताओगे|
हम कहते हैं ये जग
अपना है तुम कहते हो झूठा सपना है ,
हम जन्म बिताकर
जायेंगे तुम जन्म गवां कर जाओगे।
छंदों व गीतों के साथ-साथ
दोहा व अगीत-छंद लिखते हुए व गज़ल सुनते,
पढते हुए मैंने यह अनुभव किया
कि उर्दू शे’र भी संक्षिप्तता व सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे व अगीत की
भांति ही है और इसका शिल्प दोहे की भांति ...अतः लिखा जा सकता है, और नज्में तो
तुकांत-अतुकांत गीत के भांति ही हैं|
गज़ल मूलतः अरबी भाषा
का गीति-काव्य है जो काव्यात्मक अन्त्यानुप्रास युक्त छंद है और अरबी भाषा
में “कसीदा” अर्थात प्रशस्ति-गान हेतु प्रयोग होता था जो राजा-महाराजाओं के
लिए गाये जाते थे एवं असहनीय लंबे-लंबे वर्णन युक्त होते थे जिनमें औरतों
व औरतों के
बारे में गुफ्तगू
एक मूल विषय-भाग भी होता था। कसीदा के
उसी भाग “ताशिब “ को पृथक करके
गज़ल का रूप
व नाम दिया गया।
गज़ल शब्द
अरबी रेगिस्तान में पाए जाने वाले एक
छोटे, चंचल पशु
हिरण ( या हिरणी, मृग-मृगी ) से लिया
गया है जिसे
अरबी में ‘ग़ज़ल’ (ghazal या guzal ) कहा जाता
है। इसकी चमकदार, भोली-भाली नशीली आँखें,
पतली लंबी टांगें, इधर-उधर उछल-उछल कर एक जगह न टिकने वाली,
नखरीली चाल के कारण उसकी तुलना अतिशय
सौंदर्य के परकीया प्रतिमान वाली स्त्री से की जाती थी जैसे हिन्दी में मृगनयनी। अरबी लोग इसका शिकार बड़े शौक से करते थे। अतः अरब-कला व
प्रेम-काव्य में स्त्री-सौंदर्य,
प्रेम,
छलना,
विरह-वियोग, दर्द का प्रतिमान ‘गज़ल’ के नाम से प्रचलित
हुआ जैसे भारतीय काव्य-गीतों में वीणा-सारंग का पीड़ात्मक भावुक प्रसंग।
शायर फिराक गोरखपुरी के
अनुसार जब कोई शिकारी जंगल में हिरन का पीछा करता है और हिरन भागते-भागते
झाडी में फंस जाता है और निकल नहीं पाता तब उसके कंठ से दर्द भरी आवाज़ निकलती
है उसी करुण आवाज़ को ग़ज़ल कहते हैं इसलिए विवशता का दिव्यतम रूप में
प्रकट होना व स्वर का करुणतम होते जाना ही ग़ज़ल है|
यही भारतीय काव्य-गीतों
में वीणा-सारंग कथा का सुप्रसिद्ध प्रसंग है। यही गज़ल का
अर्थ भी ..अर्थात ‘इश्के-मजाज़ी‘ - आशिक-माशूक वार्ता या प्रेम-गीत,
जिनमें मूलतः विरह-वियोग की उच्चतर
अभिव्यक्ति होती है|
गज़ल ईरान होती हुई सारे विश्व में फ़ैली
और जर्मन
व इंग्लिश में
काफी लोक-प्रिय हुई। यथा.. अमेरिकी अंग्रेज़ी शायर
..आगा शाहिद अली
कश्मीरी की
एक अंग्रेज़ी गज़ल का नमूना पेश है...
Where are you now? who lies beneath
your spell tonight ?
Whom else rapture’s
road will you expel to night ?
My rivals for your love, you have
invited them all .
This is mere insult , this is no
farewell to night .
गज़ल का मूल छंद शे’र या
शेअर है। शेर वास्तव में ‘दोहा’ का ही
विकसित रूप
है जो संक्षिप्तता में तीब्र व सटीक भाव-सम्प्रेषण
हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है। आजकल उसके
अतुकांत रूप-भाव छंद ..अगीत, नव-अगीत
व त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं|
अरबी, तुर्की फारसी
में भी इसे
‘दोहा’ ही कहा
जाता है
व अंग्रेज़ी में
कसीदा मोनो
राइम( quasida mono rhyme)|
अतः जो दोहा में सिद्धहस्त है अगीत लिख
सकता है वह शे’र भी लिख सकता है..गज़ल भी। शे’रों की
मालिका ही गज़ल
है। ग़ज़लों के ऐसे संग्रह को जिसमें हर हर्फ से कम से कम एक
ग़ज़ल अवश्य हो दीवान
कहते हैं|
तुकांतता के अनुसार ग़ज़लें मुअद्दस या
मुकफ्फा होती है| मुअद्दस
गज़ल में
रदीफ और काफिया दोनों का ध्यान रखा जाता है इसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल
भी कहते
हैं .. यथा ....
“ उनसे मिले तो मीना ओ सागर लिए हुए,
हमसे मिले तो जंग का तेवर लिए हुए
लड़की किसी ग़रीब की सड़कों पे आगई
गाली लबों पे हाथ में पत्थर लिए हुए।...” - (जमील हापुडी)
“ उनसे मिले तो मीना ओ सागर लिए हुए,
हमसे मिले तो जंग का तेवर लिए हुए
लड़की किसी ग़रीब की सड़कों पे आगई
गाली लबों पे हाथ में पत्थर लिए हुए।...” - (जमील हापुडी)
एवं मुकफ्फा
ग़ज़ल में केवल काफिया का ध्यान रखा जाता है इसे ग़ैरमुरद्दफ़
या गैररदीफ़ ग़ज़ल भी कहते हैं|
जैसे
“जाने वाले तुझे कब देख सकूं बारे दीगर
रोशनी आँख की बह जायेगी आसूं बनकर
रो रहा था कि तेरे साथ हँसा था बरसों
हँस रहा हूँ कि कोई देख न ले दीदा ए तर”
रोशनी आँख की बह जायेगी आसूं बनकर
रो रहा था कि तेरे साथ हँसा था बरसों
हँस रहा हूँ कि कोई देख न ले दीदा ए तर”
ग़ज़ल में ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र अपने आप में पूर्ण होता है तथा शायर ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र में अलग अलग भाव को व्यक्त कर सकता है| जब किसी ग़ज़ल के सभी
शेर एक ही भाव को केन्द्र मानकर लिखे गए हों तो ऐसी ग़ज़ल को मुसल्सल ग़ज़ल कहते
हैं| यदि ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र अलग अलग भाव को व्यक्त करें तो ऐसी ग़ज़ल को ग़ैर मुसल्सल ग़ज़ल कहते
हैं|
वस्तुतः काव्य के मूल भाव के
अनुरूप ग़ज़ल में भी तकनीक की अपेक्षा भाव
प्रभावोत्पादकता व प्रवाह ही अच्छी ग़ज़ल
की पहचान है जिसमें मौलिकता हो।
जिससे गीत व कविता ही की भांति पढ़ने
वाला समझे कि यह उसके दिल की बातों का
वर्णन है। प्रायः सुरुचिपूर्ण व जाने-पहचाने
शब्दों का ही प्रयोग हो। क्लिष्ट शब्द प्रवाह,
गति,
सम्प्रेषणता व काव्यानंद में अवरोध
उत्पन्न करते हैं, भाव चाहे जितने उच्च क्यों न हों। छंद चाहे कितना भी सुन्दर हो, कथ्य की अस्पष्टता, तथ्य की अवास्तविकता एवं भाषा-शब्द्क्रम उचित न होने से रचना प्रभावहीन हो जाती है। देखिये एक उदाहरण...प्रसिद्द शेर
है...
“मगस को
यूं बागों
में जाने न
दीजिये
महज़ परवाने बर्बाद हो
जाएंगे।”
शेर लाजबाव होते हुए भी
उसका अर्थ समझ से परे है। व्याख्या है कि...हे माली! तू मगस(मधुमक्खी )
को बाग़ में न जाने देना, वह रस चूसकर छत्ता बनायेगी,
उससे मोम...फिर शमा जलेगी और परवाना
बिना वज़ह मारा जाएगा।
इसी प्रकार शब्द-क्रम न रहने से ग़ज़ल में
( हर कविता में ही ) अर्थ-अनर्थ देखिये....
कहाँ खोगई उस की
चीखें हवा में
हुआ जो परिंदा ज़िबह ढूँढता
है- --- संजय मासूम
कवि कहना चाहता है कि जो पंछी जिबह हुआ
वह हवा में अपनी चीखें ढूंढता है, परन्तु लगता ऐसा है कि वह जिबह को ढूंढ रहा हो।
भारत में शायरी व गज़ल
फारसी के साथ
सूफी-संतों के प्रभाववश प्रचलित हुई
जिसके छंद संस्कृत छंदों के समनुरूप
होते हैं। फारसी में गज़ल के विषय रूप
में सूफी प्रभाव से शब्द इश्के-मजाज़ी
के होते हुए भी अर्थ रूप में ‘इश्के
हकीकी’ अर्थात ईश्वर-प्रेम,
भक्ति,
अध्यात्म,
दर्शन आदि सम्मिलित होगये। प्रारम्भिक दौर में उर्दू ग़ज़ल में श्रृंगार के संयोग-वियोग
दोनों ही पक्षों का वर्णन रहता था बाद में उपदेश,नीति, दर्शन, चिंतन व देश-प्रेम का ज़िक्र आने लगा...
“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं
देखना है ज़ोर कितना
बाजुए कातिल में हैं
वक्त आने दे बताएंगे
तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं
क्या हमारे दिल में है।
“- --रामप्रसाद बिस्मिल
फारसी से भारत में उर्दू में
आने पर सामयिक राजभाषा के कारण विविध
सामयिक विषय व भारतीय प्रतीक व कथ्य आने लगे। उर्दू से हिन्दुस्तानी व
हिन्दी में आने पर गज़ल में वर्ण्य-विषयों का एक विराट संसार निर्मित हुआ
और हर भारतीय भाषा में गज़ल कही जाने लगी। तदपि साकी, मीना ओ सागर व
इश्के-मजाज़ी गजल का सदैव ही प्रिय विषय बना रहा। बकौल मिर्जा गालिव....
“बनती
नहीं है वादा
ओ सागर कहे
बगैर “।
यूं तो हिन्दी में ग़ज़ल कबीरदास
जी द्वारा भी कही गयी
बताई जाती है जिसे कतिपय विद्वानों द्वारा हिन्दी की सर्वप्रथम ग़ज़ल कहा जाता है, यथा....
“ हमन
है इश्क मस्ताना,
हमन को होशियारी
क्या ?
रहें आज़ाद
या जग से,
हमन दुनिया से
यारी क्या
?
कबीरा इश्क
का मारा, दुई को
दूर कर दिल
से,
जो चलना
राह नाज़ुक है,
हमन सर बोझ
भारी क्या
? “
परन्तु मेरे विचार से इस ग़ज़ल
की भाषा कबीर की भाषा से मेल नहीं खाती। हो सकता है यह प्रक्षिप्त हो एवं
कबीर नाम के किसी और गज़लकार ने इसे कहा हो|
वास्तव में तो हिन्दी में
गज़ल का प्राम्म्भ आगरा
में जन्मे व पले शायर ‘अमीर खुसरो’ (१२-१३ वीं शताब्दी)
से हुआ जिसने सबसे पहले इस भाषा को
‘हिन्दवी’ कहा और वही आगे चलकर ‘हिन्दी’ कहलाई। खुसरो अपने ग़ज़लों के मिसरे का पहला भाग फारसी या उर्दू
में व दूसरा भाग हिन्दवी में कहते थे। उदाहरणार्थ...
“ जेहाले
मिस्कीं मकुल
तगाफुल,
दुराये नैना
बनाए बतियाँ।
कि ताब-ए-हिजां,
न दारम-ए-जाँ,
न लेहु
काहे लगाय
छतियाँ।”
१७ वीं सदी में उर्दू के पहले शायर ‘वली’ ने भी हिन्दी को अपनाया व देवनागरी लिपि का प्रयोग किया।
..यथा....
“सजन
सुख सेती खोलो
नकाब आहिस्ता-आहिस्ता,
कि ज्यों
गुल से निकलता
है गुलाव आहिस्ता-आहिस्ता।
सदियों तक गज़ल राजा-नबावों
के दरबारों में सिर्फ इश्किया मानसिक विचार बनी रही जिसे उच्च कोटि की
कला माना जाता रहा। परन्तु १८ वीं सदी में
आगरा के नजीर
अकबरावादी ने शायरी को सामान्य
जन से जोड़ा और १९ वीं सदी के प्रारम्भ में
मिर्ज़ा गालिव
ने मानवीय जीवन के गीतों से।
उदाहरणार्थ.....
”जब
फागुन रंग
झलकते हों,
तब देख बहारें
होली की।
परियों के
रंग दमकते हों,
तब देख बहारें
होली की।” - ....... नजीर
अकबरावादी तथा....
“गालिव
बुरा न
मान जो वाइज़
बुरा कहे
,
ऐसा भी
है कोई कि
सब अच्छा कहें
जिसे | -------गालिव
...
१८ वीं सदी में हिन्दी में गज़ल की पहल
में भारतेंदु
हरिश्चंद्र, निराला, जयशंकर प्रसाद
आदि ने सरोकारों की अभिव्यक्ति व
लोक-चेतना के स्वर दिए..यथा निराला ने कहा...
“लोक
में बंट जाय
जो पूंजी तुम्हारे
दिल में है
“
त्रिलोचन,
शमशेर,
बलबीर सिंह ‘रंग’ ने भी हिन्दी ग़ज़लों
को आयाम दिए। परन्तु आधुनिक
खड़ी बोली में
हिन्दी-गज़ल के प्रारम्भ का श्रेय
दुष्यंत कुमार
को दिया जाता है जिन्होंने हिन्दी भाषा
में गज़लें लिख कर गज़ल के विषय
भावों को राजनैतिक, संवेदना, व्यवस्था, सामाजिक चेतना आदि के
नए नए आयाम दिए। दुष्यंत कुमार की एक गज़ल देखिये....
“दोस्तों
अब मंच पर
सुविधा नहीं
है,
आजकल नेपथ्य
में संभावना है।”
वस्तुतः हिन्दी भाषा ने अपने
उदारचेता स्वभाववश उर्दू-फारसी के तमाम शब्दों को भी अपने में समाहित किया, अतः आज के अद्यतन समय
में हिन्दी कवियों ने भी ग़ज़ल
को अपनाया व समृद्ध किया है| हिन्दी गजल के पास
अपनी विराट शब्द-संपदा है, मिथक हैं, मुहावरे, बिम्ब, प्रतीक, व रदीफ-काफियेहैं। आज हिन्दी- गजल में पारम्परिक गजल की
काव्य-रूढ़ियों से मुक्त होने का प्रयास है तथा नए शिल्प और विषय का
उत्तरोत्तर विकास का भी| फलस्वरूप आज ग़ज़ल व हिन्दी ग़ज़ल में विषयों व ग़ज़लकारों का
एक विराट रचना संसार है जो प्रकाशित पुस्तकों,
पत्रिकाओं, रचनाओं व अंतर्जाल (
इंटरनेट )पर प्रकाशन द्वारा समस्त विश्व
में फैला हुआ है तथा जो उर्दू गज़ल, हिन्दी ग़ज़ल, शुद्ध खड़ी-बोली, हिन्दी एवं हिन्दी की सह-बोलियों के शुद्ध व मिश्रित रूपों से समस्त
शायरी-विधा व ग़ज़ल को समर्थ व समृद्ध कर रहे है तथा दिन ब दिन ग़ज़ल में गीतिका, नई ग़ज़ल आदि नाम से नए-नए प्रयोग भी हो रहे हैं| मेरे विचार से हिन्दी
ग़ज़ल के लिए एक महत्वपूर्ण बात यह है कि शब्दों को हिन्दी व्याकरण के
अनुसार रखा जाए और वैसे ही मात्रा गणना भी हो ताकि ग़ज़ल के शिल्प व कथ्य में
तारतम्य रहे क्योंकि उर्दू जुवान का हिन्दी ग़ज़ल पर हावी होना उसके स्वरुप व
निखार में बाधक है। उर्दू-बहुल हिन्दी ग़ज़लों में हिन्दी की सौंधी गंध का
अभाव रहता है।...हिन्दी ग़ज़ल का उदाहरण देखिये....
साहित्य सत्यं शिवं
सुन्दर भाव होना चाहिए
,
साहित्य शुचि शुभ
ज्ञान पारावार होना चाहिए।
ललित भाषा ललित कथ्य
न सत्य तथ्य परे रहे
,
व्याकरण शुचि शुद्ध
सौख्य समर्थ होना चाहिए
|.....डा श्याम गुप्त
यदि हिन्दी में घुलमिल गए हिन्दुस्तानी
उर्दू शब्दों का प्रयोग हो तो सौन्दर्य व प्रभाव बढ़ सकता है ....देखिये..
वो हारते ही कब हें
जो सजदे में झुक लिए
यूं फख्र से जियो
यूंही चलती रहे ये ज़िंदगी।
---डा श्यामगुप्त
यह आवश्यक नहीं कि ग़ज़ल उर्दू
विधा है तो उर्दू के शब्द अवश्य हों अतः उर्दू के क्लिष्ट व
फारसी-शब्द प्रयोग का क्या लाभ जिसे हिन्दी-भाषी तो क्या उर्दू-भाषी भी न समझ
पायें ..यथा...
तहज़ीबो तमद्दुन है फ़कत नाम के लिए
गुम होगई शाइस्तगी दुनिया की भीड़ में
----कुँवर कुसुमेश
जब मैंने विभिन्न शायरों
की शायरी—गज़लें व नज्में आदि सुनी-पढीं व देखीं विशेषतया गज़ल...जो
विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया,
बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया कि बहरों-नियमों आदि
के पीछे भागना व्यर्थ है, बस लय व गति से गाते चलिए,
गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी, जो कभी मुरद्दस
गज़ल होगी या मुसल्सल
या हम रदीफ, कभी मुकद्दस
गज़ल होगी या कभी मुकफ्फा गज़ल, कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती ग़ज़ल| हाँ लय गति यति युक्त
गेयता व भाव-सम्प्रेषणयुक्तता तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और
आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान व कथ्य-शक्ति होना चाहिए| यह बात गणबद्ध छंदों
के लिए भी सच है। तो
कुछ शे’र आदि जेहन में यूं चले आये.....
“मतला
बगैर हो
गज़ल, हो रदीफ
भी नहीं,
यह तो
गज़ल नहीं, ये कोइ
वाकया नहीं।
लय गति
हो ताल सुर
सुगम, आनंद रस
बहे,
वह भी
गज़ल है, चाहे कोई
काफिया नहीं। “
और
गज़लें-----
ग़ज़ल की ग़ज़ल
शेर मतले का न हो तो कुंवारी ग़ज़ल होती
है।
हो काफिया ही जो नहीं,बेचारी ग़ज़ल होती है।
हो काफिया ही जो नहीं,बेचारी ग़ज़ल होती है।
और भी मतले हों, हुश्ने तारी ग़ज़ल
होतीं है ।
हर शेर मतला हो हुश्ने-हजारी ग़ज़ल होती है।
हर शेर मतला हो हुश्ने-हजारी ग़ज़ल होती है।
हो बहर में सुरताल लय में प्यारी ग़ज़ल
होती है।
सब कुछ हो कायदे में वो संवारी ग़ज़ल होती है।
सब कुछ हो कायदे में वो संवारी ग़ज़ल होती है।
हो दर्दे दिल की बात मनोहारी ग़ज़ल होती
है,
मिलने का करें वायदा मुतदारी ग़ज़ल होती है ।
मिलने का करें वायदा मुतदारी ग़ज़ल होती है ।
हो रदीफ़ काफिया नहीं नाकारी ग़ज़ल होती
है ,
मतला बगैर हो ग़ज़ल वो मारी ग़ज़ल होती है।
मतला बगैर हो ग़ज़ल वो मारी ग़ज़ल होती है।
मतला भी मकता भी रदीफ़ काफिया भी हो,
सोची समझ के लिखे के सुधारी ग़ज़ल होती है।
सोची समझ के लिखे के सुधारी ग़ज़ल होती है।
जो वार दूर तक करे वो करारी ग़ज़ल होती
है ,
छलनी हो दिल आशिक का शिकारी ग़ज़ल होती है।
छलनी हो दिल आशिक का शिकारी ग़ज़ल होती है।
हर शेर एक भाव हो वो जारी ग़ज़ल होती है,
हर शेर नया अंदाज़ हो वो भारी ग़ज़ल होती है।
हर शेर नया अंदाज़ हो वो भारी ग़ज़ल होती है।
मस्ती में कहदें झूम के गुदाज़कारी
ग़ज़ल होती है,
उनसे तो जो कुछ भी कहें दिलदारी ग़ज़ल होती है।
उनसे तो जो कुछ भी कहें दिलदारी ग़ज़ल होती है।
तू गाता चल ऐ यार, कोई
कायदा न देख,
कुछ अपना ही अंदाज़ हो खुद्दारी ग़ज़ल होती है।
कुछ अपना ही अंदाज़ हो खुद्दारी ग़ज़ल होती है।
जो उसकी राह में कहो इकरारी ग़ज़ल होती
है,
अंदाज़े बयान हो श्याम का वो न्यारी ग़ज़ल होती है॥
अंदाज़े बयान हो श्याम का वो न्यारी ग़ज़ल होती है॥
त्रिपदा अगीत ग़ज़ल......
पागल दिल
क्यों पागल दिल हर पल उलझे ,
जाने क्यों किस जिद में उलझे ;
सुलझे कभी, कभी फिर उलझे।
तरह-तरह से समझा देखा ,
पर दिल है उलझा जाता है ;
क्यों ऐसे पागल से उलझे।
धडकन बढती जाती दिल की,
कहता बातें किस्म किस्म की ;
ज्यों काँटों में आँचल उलझे ।।
----- डा श्याम गुप्त, के-३४८, आशियाना लखनऊ
उम्दा जानकारी के लिय धन्यवाद
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