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रविवार, 25 अगस्त 2013

श्रीमदभागवत गीता (श्लोक ५६ और उससे आगे )

श्रीमदभागवत गीता (श्लोक ५६ और उससे आगे )

(५६ )दुःख से जिसका मन उद्विग्न  नहीं होता ,सुख की जिसकी आकांक्षा नहीं होती तथा जिसके मन से राग ,भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं ,ऐसा मुनि स्थित प्रज्ञ कहा जाता है। 

हमारा मन ही कामनाओं की फेक्टरी है। कामनाएं भले मन ,इन्द्रिय ,और बुद्धि में भी रहती हैं। लेकिन वहां ये ऐसे पड़ी रहती हैं जैसे गोदाम में चीज़ें।जब तक हम पदार्थ पर निर्भर रहते हैं भगवान् तक नहीं पहुँच पाते। 

जो दुखों और सुखों की प्राप्ति से डिटेच रहे। वियोजित रहे ,असंलग्न रहे ,वही वीत राग है। लेकिन किसी को भी पता नहीं है दुखों  से ही सुख  पैदा होता है।जब ज्यादा गर्मी  पड़ती है तभी आम और तरबूज और खरबूज मीठा होता है  . लेकिन यह जीव निरंतर दुखों से भागता रहता है आलसी है। सुख हमारी ही किसी न किसी कठोर परीक्षा का परिणाम होता है। लेकिन यदि हम निरंतर सुखों के भोग में ही लगे रहेंगे तब हम अनजाने ही दुखों के निर्माण में खड़े हो जायेंगे। 

सुख के पीछे ही दुःख खड़ा होता है कोई भी नदी एक किनारे में नहीं बह सकती दूसरा किनारा खुद ब खुद बना लेती है। प्रकृति में हर चीज़ का जोड़ा है। 

भाव यह है जब दुःख पड़े उससे घबराओ मत और सुखों में अतिशय रमो मत। कई  लोग जिज्ञासा वश   ही पूछ लेते है -पहले मुर्गी आई या अंडा। सुख आया या दुःख। मुर्गी और अंडा दोनों अलग नहीं हैं जैसे बीज और उसका वृक्ष अलग नहीं हैं। अंडा प्रतिपल मुर्गी में बदल रहा है  बीज वृक्ष में और फिर वृक्ष फिर से बीज दे रहा है। यह चक्र है जिसका न आदि है न अंत।बीज निरंतर वृक्ष बन रहा अहै वृक्ष निरंतर   बीज। 

राग, भय और क्रोध आते ही क्यों हैं ?

जब भी इस   संसार में हम किसी वस्तु या व्यक्ति को  अपना मान ने लगते हैं उस वस्तु से राग पैदा होने लगता है उसके छिन  जाने की, न रहने की आशंका से भय और भय से फिर क्रोध पैदा होने लगता है।यह तीनों वास्तव में वस्तु या व्यक्ति की वजह से नहीं हैं,उन्हें अपना समझने बूझने की वजह से हैं। यह मेरा है यह मान लेने से ,इस वजह से ही हैं। 

जब तक हमारा भय किसी और व्यक्ति के हाथ  में रहेगा वह हमें कंट्रोल करता रहेगा। हम उसके रिमोट बने रहेंगें।हमारे जीवन में कुछ प्रतिकूलताएं ही हमें कंट्रोल कर रहीं हैं। जब हम मानेंगे संसार तो संसार के ही लिए  है,संसार के साधन हमारे नहीं हैं  ,जो भी चीज़ यहाँ है यहीं छूट  जाएगी । हमारे साथ नहीं जायेगी। हमारे साथ जाएगा हमारा स्वभाव संस्कार। सुकर्मों का पुण्य खाता भी एक दिन चुक जाता है। दुखों की  प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता ,सुखों की प्राप्ति में जो अनुरक्त नहीं होता  ,जिसमें राग नहीं है वही स्थित प्रज्ञ है।  

राग मतलब आसक्ति। संतरे और करेले के जूस में से संतरे का जूस राग पैदा करेगा करेले के जूस के लिए आपका मन कहेगा चलो छोड़ो इसे तो। शाश्त्र हमारे मन पर लगाम की तरह हैं। गुस्सा तो आयेगा लेकिन वह हमें कंट्रोल न करने लग जाए। हावी न हो रहे हम पर। हमें कंट्रोल न करने लगे। पानी नाव में न आये हम खेते रहें ,मोटर साइकिल हमारे ऊपर न गिरे हम चलाते रहें।   

स्थित प्रज्ञ 

स्थितप्रज्ञ उसे बतलाया गया है जो अपने आप को एक स्थिर वस्तु पर स्थिर कर सकता है। इस संसार में पैसा ,पदार्थ ,कुम्भार का चाक कुछ भी स्थिर नहीं है इस असार संसार में। स्थिर है तो वह एक मात्र परमात्मा ही है। आत्मा भी चोला बदलती रहती है । इसलिए यदि अ हम अपने आप  को भगवान  से जोड़ेंगे। हमारी प्राथमिकताओं में जब अध्यात्म और परमात्व  तत्व पहले नम्बर पर आ जायेगा ,हमारी प्रज्ञा स्थित हो जायेगी। 

जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गई है जो भगवान्  में ठहर गया है ,जिसको समाधि की अवस्था प्राप्त हो गई है -हे केशव उसका लक्षण  क्या है ?परमात्मा को प्राप्त व्यक्ति कैसे बोलता है कैसे सुनता है ,कैसे उठता बैठता है ,कैसे वह चलता है। 

लक्षण विज्ञान इस सबके आधार पर ही व्यक्तित्व निर्धारण कर लेता है। जिसके जीवन में धर्म आ गया है उसका आहर विहार कैसा होगा। भगवान् कहते हैं जो अच्छी तरह से इस संसार के सारे ऐश्वर्य को त्याग  देता है। और इस त्याग का कभी ज़िक्र नहीं करता। उसने त्याग किया यह भी जिसकी स्मृति में नहीं रहता। जो खुद से ही पूरी तरह संतुष्ट रहता है। अपने आप में ही जब व्यक्ति ख़ुशी को प्राप्त करता है। तब समझो उसको ईश्वर मिल गया। जब तक साधक बाहर की किसी भी वस्तु पर निर्भर है तो समझो उसे ईश्वर नहीं मिला है। जिस काल में व्यक्ति सारी कामनाओं को जो मन से उत्पन्न हो सकती हैं छोड़ देता है। ज्ञान प्राप्त होने पर यह स्वत : ही छूट जाती हैं छोड़ना नहीं पड़ता है। तब वह स्थित प्रज्ञ हो जाता है उस सूखी हुई लकड़ी की तरह जो बिना धुंआ छोड़े पूरा जल जाती है। 

(श्लोक ५४ - ५५ )

ॐ शान्ति 


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