यक्ष मेघ से पूछ रहा है मैं यक्षणी को पहचानूंगा कैसे यह तो
बताओ -
बादल क्या बतलाता है इसकी चर्चा बाद में पहले योगी
आनंदजी क्या कहतें हैं इस श्लोक पर यह जानिये :
श्रृंगार के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति बहुत कठिन है। श्रृंगार के
विषय इसके विपरीत पतन के ही कारण बनते हैं। दिक्कत
यह है कई साहित्यिक लोग कुच और कच से बाहर नहीं
निकल पाते हैं।कालिदास भी इसके अपवाद नहीं हैं। जीवन
में ध्येय की प्राप्ति तो तब होती है जब हमारा हृदय
सांसारिक
कामनाओं की लालसाओं से ,इन्द्रियों के विषयों से
मुक्त हो पाता है। इस सन्दर्भ में भर्तरि -हरि का वैराग्य
शतक उल्लेख्य है। कालिदास ने तो अपने साहित्यिक
पांडित्य का गैर ज़रूरी प्रदर्शन करते हुए जगत माता पार्वती
जी के सम्भोग श्रृंगार का भी वर्रण कर डाला है। पार्वती जी
के
शाप से ही उन्हें गलित कुष्ठ रोग हो गया था।फलस्वरूप
उनका काव्य कुमार संभव अधूरा ही रह गया था।उनकी शाप
मुक्ति तभी हो पाई जब उन्होंने रघुवंश महाकाव्य की रचना
की। क्योंकि कुमार-संभव तो सारा सांसारिक रहा है। मेघ दूत
में भी यही मैथुनी और कुच कच वर्रण और (नख शिख
वर्रण के आवरण में मैथुनी देह मुद्राएँ निस्संकोच चली आईं
हैं।
यहाँ वहां कालिदास ने अपने साहित्य श्रृंगार में अपनी
कवित्व
शक्ति का नग्न नृत्य तांडव किया है।
इस सबकी एक तीक्ष्ण आलोचना करते हुए तुलसीदास ने
एक
ही चौपाई में कालिदास को नाप के रख दिया है। मम्मट ने
अपने काव्य प्रकाश में तीन प्रकार के उपदेश बताये हैं।
(१) प्रभु सम्मित (सम्मत )
(२ )सुरित सम्मित
(३)कांता सम्मित
वेदों ने जो आदेश दिया है वेदों की जो आज्ञा है वह प्रभु
सम्मित है।
पुराण सुरति सम्मित उपदेश देते हैं मित्रों की तरह।मित्रों
के
लिए हैं।
के
लिए हैं।
काव्य कांता सममित है प्रेमिका के लिए हैं। अनुराग पैदा
करता है।
करता है।
तीनों का सार रूप तुलसीदास ने एक चौपाई में कह
दिया है :
करहिं विविध बिधि भोग बिलासा ,
गगंह समेत वसहिं कैलासा।
तुसली दास यहां सावधना करते हुए कहते हैं :
जगत मातु पितु सम्भु भवानी ,
तेहिं श्रृंगार न कहहु बखानी।
जो जगत के मातु पिता हैं उनका श्रंगारिक वर्रण निषिद्ध है।
इसी कारण कालिदास कुमार संभव पूरा ही नहीं कर पाए।
अपनी करनी का तुरता फल पा गए।
ॐ शान्ति
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें