संत कबीर का एक बिरला पद भावार्थ सहित
कबीर के काव्य में मिश्रण बहुत है। कहत कबीर सुनो भाई साधौ के साथ बहुत कुछ लिख दिया गया है जो कबीर के मूल साहित्य में खोजे नहीं मिलता है। यहाँ हम कबीर की एक ऐसी रचना का भावार्थ प्रस्तुत करेंगे जिसे स्वर्गीय भीम सेन जोशी ने गाया था। यू ट्यूब पर इस कर्ण प्रिय भजन को सुना जा सकता है फिलहाल मूल पाठ सहित भावार्थ पढ़िए :
काया नहीं तेरी ,नहीं तेरी
मतकर ,मेरी मेरी।
ये तो दो दिन की जिंदगानी ,
जैसा पत्थर ऊपर पानी ,
ए (ये )तो होवेगी खुरबानी।
काया नहीं तेरी ,नहीं तेरी ……
जैसा रंग तरंग मिलावे ,
ए तो पलख पीछे उड़ जावे ,
अंत कोई काम नहीं आवे।
काया नहीं तेरी ...
सुन बात कहूं परमानी ,
वहां की क्या करता गुमानी ,
तुम तो बड़े हो बेइमानी।
काया नहीं तेरी ……
कहत कबीरा सुन नर ग्यानी ,
ए सीखत गयो निरमानी ,
तेरे को बात कही समझानी।
काया नहीं तेरी नहीं तेरी। ……
शब्दार्थ :पलख -पल ,परमानी -प्रामाणिक ,प्रमाण सहित ,गुमानी -अभिमान ,निरमानी -निर्वाण
,निरभिमान
,निरहंकार ,खुरबानी -नष्ट ,नश्वर
भावार्थ :
कबीर कहते हैं ये काया तेरी नहीं है। हे आत्मा तू यहाँ किरायेदार है रेंट पर है। जब ये तुझसे छूटेगी इसके पांच
हिस्सेदार अपना अपना हिस्सा ले लेंगे। पञ्च भूतों की नश्वर काया पंच भूतों में मिल जायेगी। तेरे हाथ कुछ
नहीं आयेगा इसे अपना मत बूझ। कबीर कहते हैं ये शरीर तो अलग है इसके मोहजाल में फंसकर तुम अवरुद्ध
मत होवो। इसके मूल स्वरूप शांत स्वरूप आत्मा को पहचानो।
यह जीवन तो नश्वर है टिकने वाला नहीं है जैसे पत्थर पर पानी टिकता नहीं है ,बह जाता है नष्ट हो जाता है।
पत्थर की मिट्टी की तरह पानी से यारी नहीं है पत्थर पानी को मिट्टी की तरह रोकता नहीं है ज़ज्ब नहीं करता
है। ये जीवन भी वैसे ही क्षण भंगुर है जलवाष्प सा उड़ जाना है।
मनुष्य आत्मा तरंग की तरह है तरंग का स्वभाव है गति करना प्रवाहित होते रहना है बहना है अब भला
बहते पानी में रंग कैसे मिलेगा। जैसे व्यक्ति बहते पानी में रंग मिलाना चाह रहा हो वैसे ही राग रंग सजाता है
जीवन में। ये राग रंग ये हद के सुख साधन रहने वाले नहीं हैं एक दिन उड़ जायेंगे। जो सुख के असल साधन है
उनसे हटके इन साधनों से क्या नेह लगाना। आखिर में ये सब यहीं रह जाना है काम नहीं आने हैं ये सुख के
साधन और वैभव। हे आत्मन तुम बड़े बे -ईमान हो जीवन के असली सुख (परमात्म प्रेम )से वंचित हो।
जो इस भेद को जान गया है वह तुरंत निर्वाण को प्राप्त हो जाता है निरभिमानी निरहंकारी बन जाता है। अपने
मूल स्वरूप (निज आनंद स्वरूप शांत स्वरूप ,प्रेम स्वरूप आत्मा) को जान जाता है। मैं यह बात प्रमाण स्वरूप
कह रहा हूँ -हे प्राणी! तू उस शरीर का गुमान कर रहा है जो काल के प्रवाह में टिकता नहीं है। अपने आप को
ग्यानी समझने वाले व्यक्ति तुम किस भ्रम में पड़े हुए हो। मैं तुम्हें समझा रहा हूँ इस सच्चे ज्ञान को समझकर
तुम निर्वाण धाम में चले जाओगे। तुम्हारा यह अहंकार नष्ट हो जाएगा।
ॐ शान्ति
कबीर के काव्य में मिश्रण बहुत है। कहत कबीर सुनो भाई साधौ के साथ बहुत कुछ लिख दिया गया है जो कबीर के मूल साहित्य में खोजे नहीं मिलता है। यहाँ हम कबीर की एक ऐसी रचना का भावार्थ प्रस्तुत करेंगे जिसे स्वर्गीय भीम सेन जोशी ने गाया था। यू ट्यूब पर इस कर्ण प्रिय भजन को सुना जा सकता है फिलहाल मूल पाठ सहित भावार्थ पढ़िए :
काया नहीं तेरी ,नहीं तेरी
मतकर ,मेरी मेरी।
ये तो दो दिन की जिंदगानी ,
जैसा पत्थर ऊपर पानी ,
ए (ये )तो होवेगी खुरबानी।
काया नहीं तेरी ,नहीं तेरी ……
जैसा रंग तरंग मिलावे ,
ए तो पलख पीछे उड़ जावे ,
अंत कोई काम नहीं आवे।
काया नहीं तेरी ...
सुन बात कहूं परमानी ,
वहां की क्या करता गुमानी ,
तुम तो बड़े हो बेइमानी।
काया नहीं तेरी ……
कहत कबीरा सुन नर ग्यानी ,
ए सीखत गयो निरमानी ,
तेरे को बात कही समझानी।
काया नहीं तेरी नहीं तेरी। ……
शब्दार्थ :पलख -पल ,परमानी -प्रामाणिक ,प्रमाण सहित ,गुमानी -अभिमान ,निरमानी -निर्वाण
,निरभिमान
,निरहंकार ,खुरबानी -नष्ट ,नश्वर
भावार्थ :
कबीर कहते हैं ये काया तेरी नहीं है। हे आत्मा तू यहाँ किरायेदार है रेंट पर है। जब ये तुझसे छूटेगी इसके पांच
हिस्सेदार अपना अपना हिस्सा ले लेंगे। पञ्च भूतों की नश्वर काया पंच भूतों में मिल जायेगी। तेरे हाथ कुछ
नहीं आयेगा इसे अपना मत बूझ। कबीर कहते हैं ये शरीर तो अलग है इसके मोहजाल में फंसकर तुम अवरुद्ध
मत होवो। इसके मूल स्वरूप शांत स्वरूप आत्मा को पहचानो।
यह जीवन तो नश्वर है टिकने वाला नहीं है जैसे पत्थर पर पानी टिकता नहीं है ,बह जाता है नष्ट हो जाता है।
पत्थर की मिट्टी की तरह पानी से यारी नहीं है पत्थर पानी को मिट्टी की तरह रोकता नहीं है ज़ज्ब नहीं करता
है। ये जीवन भी वैसे ही क्षण भंगुर है जलवाष्प सा उड़ जाना है।
मनुष्य आत्मा तरंग की तरह है तरंग का स्वभाव है गति करना प्रवाहित होते रहना है बहना है अब भला
बहते पानी में रंग कैसे मिलेगा। जैसे व्यक्ति बहते पानी में रंग मिलाना चाह रहा हो वैसे ही राग रंग सजाता है
जीवन में। ये राग रंग ये हद के सुख साधन रहने वाले नहीं हैं एक दिन उड़ जायेंगे। जो सुख के असल साधन है
उनसे हटके इन साधनों से क्या नेह लगाना। आखिर में ये सब यहीं रह जाना है काम नहीं आने हैं ये सुख के
साधन और वैभव। हे आत्मन तुम बड़े बे -ईमान हो जीवन के असली सुख (परमात्म प्रेम )से वंचित हो।
जो इस भेद को जान गया है वह तुरंत निर्वाण को प्राप्त हो जाता है निरभिमानी निरहंकारी बन जाता है। अपने
मूल स्वरूप (निज आनंद स्वरूप शांत स्वरूप ,प्रेम स्वरूप आत्मा) को जान जाता है। मैं यह बात प्रमाण स्वरूप
कह रहा हूँ -हे प्राणी! तू उस शरीर का गुमान कर रहा है जो काल के प्रवाह में टिकता नहीं है। अपने आप को
ग्यानी समझने वाले व्यक्ति तुम किस भ्रम में पड़े हुए हो। मैं तुम्हें समझा रहा हूँ इस सच्चे ज्ञान को समझकर
तुम निर्वाण धाम में चले जाओगे। तुम्हारा यह अहंकार नष्ट हो जाएगा।
ॐ शान्ति
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवारीय चर्चा मंच पर ।।
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