कलम की खुश्बू ,विवेक दोनों गायब हैं -
भाषा वर्तनी खाने लगी है
मोबाइल की नै वर्तनी -
व्याकरण भुलाने लगी है।
उच्चारण शाश्त्र को डेनियल जान्स के
तड़पाने लगी है -
उच्चारण शाश्त्र को डेनियल जान्स के
तड़पाने लगी है -
शेक्स्पीयर की आत्मा चिल्लाने लगी है
अंग्रेजी-
अब हिंगलिश से भी आगे जाने लगी है
स्लेंग्स की अम्मा अपनी खैर मनाने लगी है
भाषा वर्तनी खाने लगी है।
अपभ्रंश से आगे जाने लगी है।
स्लेंग्स की अम्मा अपनी खैर मनाने लगी है
भाषा वर्तनी खाने लगी है।
अपभ्रंश से आगे जाने लगी है।
एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :
रविवार, 4 अगस्त 2013
कलम की खुशबू
बहुत समय बाद कुछ लिखना चाहा
तो कलम की जगह अपना मोबाइल उठायाज़िन्दगी की खिटपिट और मोबाइल की पिट पिट से तंग
बस कुछ शब्द ही जोड़ पाया
भौतिकता में उलझी ज़िन्दगी पे खुद से कई सवाल किए
और अपने ही सवालों के आगे खुद को निरुत्तर पाया
मन ढूँढ रहा था कलम की खुशबू
और कोस रहा था मन ही मन तकनीक को भी
झुँझलाकर मैंने तैयारी कर ली सोने की
मोबाइल को लगाया साइलेंट मोड पर
पर ये मन लगा रहा अपने उधेड़बुन में
कि आखिर कलम की वो खुशबू कहाँ गयी ?
लेबल: कलम की खुशबू, राजीव रंजन गिरि
बहुत ही विचारणीय कविता।
जवाब देंहटाएंकलम की खुशबू मौजूद है, मुलाहिजा किया जाए
जवाब देंहटाएंअंधी दौड़ में समय की कमी को न कोसा जाए
लिखने के लिए कलम का ही प्रयोग हो श्याम -
तकनीक का प्रयोग सिर्फ तकनीकी में किया जाए