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सोमवार, 12 अगस्त 2013

भगतन की भगतनी होय बैठी ,ब्रह्मा के ब्रहमाणी

माया महाठगनी हम जानी ,निर्गुण फांस लिए कर डोले बोले मधुरी बानी।

केशव के कमला बन बैठी ,शिव के भवन भवानी ,

पंडा के मूरत होय बैठी ,तीरथ में भई पानी ,

जोगी के जोगिन हुई बैठी ,राजा के घर रानी।

काहू के हीरा होय बैठी ,काहू के कौड़ी  कानी।

भगतन के भगतिन होय बैठी ,ब्रह्मा के ब्रह्माणी ,

कहत कबीर सुनो हो संतो ,यह सब अकथ कहानी।

कहत कबीर सुनो भई साधौ ,यह सब अकथ कहानी।

माया महा ठगनी हम जानी ,तिरगुन फांस लिए कर डोले ,

बोले माधुरी बानी।

कबीर ने ही इस सबका अपने एक पद में ज़वाब भी दिया है -

मोको कहाँ ढूंढें रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में,

ना तीरथ में ना मूरत में ,ना एकांत निवास में ,

ना मंदिर में ना मस्जिद में ,ना काबे कैलास में।

मैं तो तेरे पास में बन्दे ,मैं तो तेरे पास में।

ना में जप में ना में तप में ,ना में बरत उपास में ,

ना में क्रिया -करम  में रहता ,नहिं जोग संन्यास में ,

ना ब्रह्माण्ड आकास में ,ना में प्रकृति प्रवार गुफा में ,

नहिं स्वासों की स्वांस में।

खोजि होए तुरत मिल जाऊँ ,

इक पल की तालास  में ,

कहत कबीर सुनो भई साधो,

मैं तो हूँ विश्वास  में।

ब्रह्म को सत्य और जगत को माया (भ्रम )कहा गया है। यह जगत मिथ्या नहीं है। यह तब मिथ्या हो जाता है जब हम बाहर से अन्दर की ओर जीने लगते हैं। हम इस हद के सुख को ही बे -हद का मानने समझने लगते हैं। जबकि यह बाहरी संसार ,ये व्यायामोह, ये हद का आकर्षण ,ये देह और देह के सब सम्बन्ध तो परिवर्तनशील हैं आज हैं कल नहीं हैं। क्षण भंगुर है बुदबुदे की तरह। बुदबुदा सागर में मिलके सागर नहीं हो जाता है उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है।

भले धनीमानी व्यक्ति इस हद के सुख को हीरे जवाहरात में तथा भिखारी धेले दूकड़े में ,पुजारी पत्थर की मूरत में  ढूंढें। है सब ये माया के ही रूप। और गंगा में नहाने से पुण्य मिलता तो सारे कैदी जेल में न रखे जाकर कुम्भ स्नान को ले जाए जाते। माया है यह गंगा का जल.  कबीर ने ही कहा  है पाहून पूजे हरि मिले ,तो मैं पूजूं पहाड़ ,ताते ये चाकी भली पीस खाय संसार। कबीर कहते हैं अंदर डूबकी लगाओ। अन्दर से बाहर की ओर  जीकर देखो तभी बेहद का सुख मिलेगा। प्रभु प्राप्ति होगी। अपने निज आत्म स्वरूप को पहचानों तो परमात्मा से भी तुम्हारे तार जुड़ें बेहद का सुख मिले।

कृष्ण के अन्दर संसार का सारा ऐश्वर्य बन शिव के अन्दर विश्व की महारानी बन यही माया बैठी होय है। दिखे है। शंकर तो संहार का देवता है। जबकि शिव तो सदैव ही कल्याण कारी है। जबकि जो अपनी इन्द्रियों का मालिक वह गोविन्द है कृष्ण है। तुम भी अन्दर डुबकी लगाओ तो भ्रम दूर हो। माया का आवरण छटे।

ॐ शान्ति



4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक कल मंगलवार (13-08-2013) को "टोपी रे टोपी तेरा रंग कैसा ..." (चर्चा मंच-अंकः1236) पर भी होगा!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. क्या बात है------निर्गुण फांस नहीं तिरगुन फंस ----

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