आनंदै आनंद बढ्यौ
अति ।
देवनि दिवि
दुंदुभी बजाई,सुनि मथुरा
प्रगटे जादवपति ।
विद्याधर-किन्नर
कलोल मन उपजावत मिलि कंठ अमित गति ।
गावत गुन गंधर्व
पुलकि तन, नाचतिं सब सुर-नारि रसिक
अति ।
बरषत सुमन सुदेस
सूर सुर, जय-जयकार करत, मानत रति ।
सिव-बिरञ्चि-इन्द्रादिअमर
मुनि, फूले सुखन समात मुदित मति
॥1॥
देवकी मन मन चकित
भई ।
देखहु आइ
पुत्र-मुख काहे न, ऐसी कहुँ देखी न
दई ।
सिर पर मुकुट,
पीत उपरैना, भृगु-पद-उर, भुज चारि धरे ।
पूरब कथा सुनाइ
कही हरि, तुम माँग्यौ इहिं भेष करे
।
छोरे निगड़,
सोआए पहरू, द्वारे की कपाट उधर्यौ ।
तुरत मोहि गोकुल
पहुँचावहु, यह कहिकै किसु वेष धर्यौ
।
तब बसुदेव उठे यह
सुनतहिं, नँद-भवन गए ।
बालक धरि,
लै सुरदेवी कौं, आइ सूर मधुपुरी ठए ॥2॥
गोकुल प्रगट भए
हरि आइ
अमर-उधारन,
असुर-सँहारन, अंतरजामी त्रिभुवन राइ ।
माथै धरि बसुदेव
जु ल्याए, नंद-महर-घर गए पहुँचाइ ।
जागी महरि,
पुत्र-मुख देख्यौ, पुलकि अंग उर मैं न समाइ ।
गदगद कंठ,
बोल नहिं आवै, हरषवंत ह्वै नंद बुलाइ ।
आवहु कंत,
देव परसन भए, पुत्र भयौ, मुख देखौ धाइ ।
दौरि नंद गए,
सुत-मुख देख्यौ, सो सुख मोपै बरनि न जाइ ।
सूरदास पहिलैं ही
माँग्यौ, दूध पियावत जसुमति माइ ॥3॥
हौं इक नई बात
सुनि आई ।
महरि जसौदा ढोटा
जायौ, घर-घर होति बधाई ।
द्वारैं भीर
गोप-गोपिन की, महिमा बरिन न जाई
।
अति आनन्द होत
गोकुल मैं, रतन भूमि अब छाई ।
नाचत वृद्ध,
तरुन अरु बालक, गोरस-कीच मचाई ।
सूरदास स्वामी
सुख-सागर, सुन्दर स्याम कन्हाई ॥4॥
आजु नन्द के
द्वारें भीर ।
इक आवत, इक जात बिदा ह्वै, इक ठाड़े मन्दिर कैं तीर ।
कोउ केसरि कौ
तिलक बनावति, कोउ पहिरति कंचकी
सरीर ।
एकनि कौं गो-दान
समर्पत, एकनि कौं पहिरावत चीर ।
एकनि कौं भूषन
पाटंबर; एकनि कौं जु देत नग हीर ।
एकनि कौं पुहपनि
की माला, एकनि कौं चन्दन घसि नीर ।
एकनि मथैं
दूध-रोचना, एकनि कौं बोधति दै धीर ।
सूरदास धनि स्याम
सनेही, धन्य जसोदा पुन्य-सरीर ॥5॥
सोभा-सिन्धु न
अन्त रही री ।
नंद-भवन भरि
उमँगि चलि, ब्रज की बीथिन फिरति बही
री ।
देखी जाइ आजु गोकुल
मैं, घर-घर बेंचति फिरति दही
री ।
कहँ लगि कहौं
बनाइ बहुत विधि, कहत न मुख सहसहुँ
निबही री ।
जसुमति-उदर-अगाध-उदधि
तैं उपजी ऐसी सबनि कही री ।
सूरश्याम प्रभु
इंद्र-नीलमनि, ब्रज-बनिता उर
लाइ गही री ॥6॥
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