मित्रों!

आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं।

बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए।


फ़ॉलोअर

मंगलवार, 13 अगस्त 2013

एक और व्याख्या

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।

जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥


कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।


परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥


जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल खावै।


'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥



                                 ---------सूरदास 

जब तक मनुष्य ईशवर की शरण में नहीं आता है उसे आंतरिक सुख नहीं मिलता है। जैसे समुद्र में चलने वाले जहाज से उड़ने वाला पक्षी समुद्र को लांघ नहीं सकता वापस जहाज पर लौट कर ही उसे विश्राम मिलता है क्योंकि जहाज भी तो इस संसार रुपी भवसागर में ही चल रहा है। वैसे ही यह मनुष्य का मन है। 

कमल नैन कृष्ण और विष्णु दोनों को कहा गया है जो जीव कृष्ण और विष्णु को छोड़कर किसी और देवता की पूजा करता है वह वैसे ही है जैसे कोई प्यासा अपनी प्यास बुझाने के लिए गंगा के अबाध जल को छोड़ जो विशुद्ध जल राशि और अमृत अपने अन्दर से उछा लती रहती है कोई कुआँ  खोदे तो उसे मूर्ख ही कहा जाएगा। 

जिसने कमल के पराग का सेवन किया हो वह काँटों दार वृक्ष करील के फल क्यों खायेगा। 

कामधेनु वह है जो आपकी विनम्र आँखों को देख कर ही समझ ले आपको क्या चाहिए उसे छोड़कर उस बकरी को दुहे जिसका दूध इतना थोड़ा होता हो जो दुहने वाले को भी तृप्त न करे। करील का फल तो नीरस होता है जंगली फल है जिसे खाके कोई तृप्त नहीं होता है। 

विशेष :जो अपनी इच्छा को बदल ले वह कामरूप होता है। कल्प तरु होता है जो आदि भौतिक से उठाकर हमें आदि दैविक की ओर ले   जाए। 

काम शब्द का अर्थ है इच्छा करना। जो अपने दुग्धामृत से मनुष्य की हर इच्छा पूरी कर देती है वह कामधेनु है। जैसे जल हमारे शरीर की हरेक कोशिका की प्यास बुझा देता है अन्न हमारे पूरे शरीर को ही तृप्त कर देता है सिर्फ पेट को ही नहीं भरता है। जैसे सूर्य रश्मि किसी भी चीज़ का रूप धारण कर सकती है ऊर्जा रूप में अंतरित होकर। वैसे ही कामधेनु है। माँ के बाद यदि कोई मनुष्य के सबसे निकट है तो वह गाय (धेनु )ही है। जहां मांगने वाला जिसे माँ मानता है निस्संकोच हो उस से कुछ भी मांग लेता है। उसे कोई दीनता नहीं होती माँ से मांगने  में और माँ झट उसे पूरा भी कर देती है। हमारे भावों से देह मुद्रा से ही समझ जाती है हमें क्या चाहिए। वैसे ही हमारे लिए कामधेनु है। समस्त सृष्टि में माँ के दूध के रूप में जो विश्व की पालक है कामधेनु की विरत कल्पना है जिसके दूध से तमाम चीज़ें तैयार की जा सकती हैं। जो प्राथमिक आहार है हर नवजात का वह कामधेनु है। वह तो माँ है उससे मांगने में काहे की देरी कैसा संकोच। और वह देने में भी देर नहीं लगाती। 

एक और व्याख्या 

ॐ शान्ति। 




2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज बुधवार (14-08-2013) को 'आज़ादी की कहानी' : चर्चा मंच १३३७....में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह ... सुन्दर विवेचन ... सूर दास के सुन्दर पद को उतनी ही सुंदरता से व्यखित किया है ...
    राम राम जी ...

    जवाब देंहटाएं