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सोमवार, 5 अगस्त 2013

माया तृष्णा न मरी ,मर मर गए शरीर , आशा तृष्णा न मरी कह गए दास कबीर।

Maya Mari Na Man Mara, Mar Mar Gaye Shareer
Asha Trishna Na Mari, Keh Gaye Das Kabir
Translation
Neither illusion nor the mind, only bodies attained death
Hope and delusion did not die, so Kabir said.

To understand this doha correctly, one must understand first the word 'Maya'. This word is like an unsolved riddle and hard to translate. For want of a proper word, it is loosely translated as illusion. In its depths, 'Maya' perhaps means, Nature on the go...ever changing...hence an illusion.

In this doha, Kabir says while the physical body that is born, lives and eventually dies, the world of Maya goes on as does the Mind (that intelligent governing Self). Hope and the deceptive greed or delusion does not die either. Even in his death bed, one continues to cling with the perishable - the body, with one's aspirations, desires - and the cravings, the urges, the yearnings (trishna) dies not. In fact, the play of the world "leela" goes on because of this.

In his typical mystic style, Kabir compels the reader to contemplate and realize the Truth.

माया तृष्णा न मरी ,मर मर गए शरीर ,

आशा तृष्णा न मरी कह गए दास कबीर।

माया शब्द में मा का अर्थ है जो नहीं है फिर भी भासित है। या का अर्थ है :जो।

 जब माया ईश्वर अधीन होकर कार्य करती है तो योगमाया हो जाती है। मनुष्य में यह अविद्या रूप में व्याप्त है। जबकि योगमाया अर्थात ब्रह्म ज्योति ,नूर ,भगवान की आनंद शक्ति है। माया ब्रह्म  की अ-लौकिक ,असाधारण और रहस्य मय शक्ति है। इसे आदि प्रकृति भी कहा गया है।

प्रकृति को माया का प्रतिबिम्ब भी समझा जाता है। गुरुनानक देव ने कहा -"प्रभु ने माया रची है ,जो हमें भुलावा देती है और नियंत्रण में रखती है।

माया का अर्थ सत्य की अवास्तविक ,काल्पनिक और भ्रामक छवि भी है। माया की शक्ति के कारण व्यक्ति को ब्रह्म से पृथक विश्व के अस्तित्व का आभास होता है।

विस्तृत व्याख्या:

माया का असर हमारे मन पर पड़ता है। फिर मन से शरीर पर पड़ता है.इसीलिए न माया मरती है न मन मरता है। मन संसार में लिप्त हो जाता है संसार बन जाता है हमारा मन। संसार मन बन जाता है। जिसे मरना चाहिए वह माया और मन तो मरता नहीं है शरीर (काया )मर जाता  है। माया से मुक्ति मिले तो मन संसार से विरक्त हो। फिर शरीर का मरना न मरना वैसे ही हो जाए जैसे आप अमर हो गए।

आशा और तृष्णा दोनों ही मन से सम्बन्धित हैं। मन के विषय हैं। न तो मन उन्मन हुआ (अ -मन हुआ ),न आशा तृष्णा दूर हुईं शरीर ही मरता रहा बार बार।

बस एक बार मन अ -मन हो जाए फिर क्या डरना। फिर तो हम अमर ही हो जाएँ फिर शरीर मरे न मरे कोई फर्क नहीं पड़ता।

ॐ शान्ति    


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