( १ २ )एक प्रीत से जो मिले ,ताको मिले धाय ,
अंतर राखे जो मिले ,तासे मिले बलाय।
जो प्रीती की अभिन्नता से तुमसे मिले उसे हृदय में धारण करना चाहिए। एक निष्ठा से ही परमात्मा मिलता है। समर्पित प्रेम से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। उसे ही हृदय में बसा लेना चाहिए ,फिर बाहर नहीं जाने देना चाहिए। जिस संसार को हमने पहले से हृदय में बसा रखा है वह संसार तो कष्ट देने वाला है। जो एक समर्पण से ही मिलता है वह एक परमात्मा ही है।
( १ ३ )अब गुरु दिल में देखिया ,गावन को कछु न नाय ,
कबीरा जब हम गावते ,तब जाना गुरु नाय।
सब मेरा मैं सबन का ,इहाँ दूसरा नाहिं।
मैंने उस परमात्मा को जान लिया है अब सबमें मुझे एक वही दिखाई देता है। बाहर भीतर का अब सब भेद मिट गया है। वह जो सबमें व्याप्त है वही एक परमात्मा तो मुझमें व्याप्त है इस नाते से पूरा संसार भी मुझमे ही व्याप्त है। और मैं पूरे संसार में व्याप्त हूँ।
( १ ५ )कबीरा ते नर अंध हैं ,गुरु को कहते और ,
हरि रूठे गुरु ठौर है ,गुरु रूठे नहीं ठौर।
जो गुरु को परमात्मा से भिन्न मानते हैं वे अंधे हैं। गुरु तो परमात्मा रूप ही है। बल्कि उससे भी आगे है। क्योंकि परमात्मा अगर रूठ जाए गुरु फिर भी आश्रय देता है गुरु रूठ जाए ,फिर परमात्मा भी नहीं बचाता है। गुरु स्वयं परमात्मा भी है और अपने शिष्यों के लिए परमात्मा से बढ़कर भी है। गुरु साक्षात सगुण रूप है परमात्मा का। यदि तुमको गुरु में परमात्मा नहीं दिखाई देता है तो समझो परमात्मा तुमसे बहुत दूर है। फिर तुम उसे पा नहीं सकते।
( १ ६ )करता था तो क्यों रहा ,अब काहे पछताय ,
बोया पेड़ बबूल का ,आम कहाँ से खाय।
अगर तुम अपने आपको ही करता मानते थे तो फिर जीवन में असफल ही क्यों हुए। इसका मतलब यह है तुम करता नहीं हो कर्म के निमित्त हो। करन करावन - हार वह ईश्वर ही है वही करता है। कारणों का कारण वही है। तुम अपने अहंकार में आके कृतित्व का भाव न रखते तो अपने आप को करता न मानते। तब सुख दुःख भी न पाते। अब जब परमात्मा की दी हुई शक्ति को ही तुमने अपना अहंकार बना लिया है। बबूल का पेड़ ही तब तुमने बोया है जिसमें कांटे ही कांटे हैं इसलिए आम कहाँ से खाने को मिलेगा। तुमने ऐसे काम क्यों नहीं किये जो जीवन में सुख मिले। तुम नियामक नहीं निमित्त थे और अपने को करता समझ बैठे। कर्म के अहंकार कर्म की आसक्ति की वजह से ही तुमने कष्ट पाया है। सकाम कर्म करने का तुमने दंभ पाला था। इसलिए अब कष्ट उठा रहे हो।
( १ ७ )यार बुलावे भाव सूँ ,मोसे गयो न जाय ,
दुल्हन मैली ,पिउ उजला ,लाग सकूँ न पायं।
मैं उसके भाव की ,प्रेम की डोर में बंध के उसके पास जा ही न सका। अपने अहंकार में ही पडा रहा। अपने अहंकार को छोड़कर उसमें लीन ही न हो सका। आत्मा रुपी दुल्हन अब कहती है-मेरा प्रियतम तो उज्जवल है। उसने तो बड़ी सहजता से ही मुझे बुलाया था मैंने ही संसार के सुख भोग की लालसा में खुद को मैला बना लिया उसकी सुनी नहीं। अब मैं उसके पैर भी कैसे छूवूँ ?मैं तो अब उसके चरण स्पर्श कर लेने की भी पात्रता खो चुकी हूँ। संसार के पापों में ही मैं ने अपना जीवन नष्ट कर दिया।
( १ ८ )हरि से भी हरिजन बड़े ,समझ देखि मन माहिं ,
कहे कबीर जग हरि दिखे ,तो हरि हरि जन माहिं।
यहाँ अद्वैत की बात है। जो भक्त होता है वह भगवान् से भी बड़ा होता है भगवान् की नजर में। भगवान स्वयं कहतें हैं जो मेरे भक्तों का अनादर करता है मैं उसे कभी माफ़ नहीं करता। तू अपने मन में देख और समझ -परमात्मा से भी बड़े परमात्मा के भक्त होते हैं। उनकी संगत करोगे तो परमात्मा भी मिल जायेंगे। इस दोहे में संतों का महत्व बतलाया गया है। हरि में पूरा संसार व्याप्त है। परमात्मा और उसका बनाया हुआ यह सारा संसार जिसमें भगत भी हैं एक हरि में ही व्याप्त हैं। सारा जन जन (सारा संसार )ही परमात्मा में समाया हुआ है। सब कुछ ईशवर में ही वसित है। ईश ही पूरे संसार में व्याप्त है।
१९ ) प्रीत जो लागी घुल गई ,पीठ गई मन माहिं ,
रूम रूम पिउ पिउ कहै ,मुख की श्रृद्धा नाहिं।
प्रभु प्रीत पहले तो मुख से जपने उसके नाम तक ही सीमित थी। अब प्रभु मेरे लिए केवल मुख से उच्चारण नहीं है अब तो प्रिय का नाम मुख के उच्चारण से आगे निकल हृदय की मार्फ़त शरीर के हर कोष तक पहुंच गया है। अब पूरी शरीर सत्ता ही उसका उच्चारण करती है। उसका नाम अब तो सारे अस्तित्व कोष में ही समा गया है।
ॐ शान्ति
साथ में पढ़िए गीता श्लोक ,भावार्थ सहित (५० -५५ )
श्रीमद्भागवत गीता (श्लोक ५१ -५५ )
(५ १ )ग्यानी कर्मयोगी जन कर्मफल की आसक्ति को त्यागने के कारण जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं तथा परम शान्ति को प्राप्त करते हैं।
(५ २ )जब तुम्हारी बुद्धि मोह रुपी दलदल को पार कर जायेगी ,उस समय तुम शाश्त्र से सुने हुए तथा सुनने योग्य वस्तुओं से भी वैराग्य प्राप्त करोगे।
(५ ३ )जब अनेक प्रकार के प्रवचनों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में निश्छल रूप से स्थिर हो जायेगी ,उस समय तुम समाधि में परमात्मा से युक्त हो जाओगे।
( ५४ )अर्जुन बोले -हे केशव ,समाधि प्राप्त ,स्थिर बुद्धि वाले अर्थात स्थितप्रज्ञ मनुष्य का लक्षण क्या है ?स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है ,कैसे बैठता है और कैसे चलता है।
(५ ५ )श्रीभगवान बोले -हे पार्थ ,जिस समय साधक अपने मन की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण रूप से त्याग देता है और आत्मा में आत्मानंद से ही संतुष्ट रहता है ,उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
विस्तृत भाव- सार उपर्युक्त का :
सबसे पहले व्यक्ति को ज्ञान से जुड़ना चाहिए कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल अनुकूलता ,प्रतिकूलता से प्रभावित नहीं होना चाहिए। ऐसा व्यक्ति निर्विकार पद मोक्ष को प्राप्त हो जाता है ईश्वर को प्राप्त हो जाता है। भगवान् यहाँ ऐसा करने की विधि बतला रहे हैं -
विवेक से जुड़े ग्यानी जन कर्म फल की आसक्ति को छोड़ देते हैं। हमारे जीवन में जो भी हालात आते हैं वह सभी हमारे ही कर्मों का फल हैं । सुख दुःख दोनों ही जीवन में आते हैं विवेकवान व्यक्ति दोनों को ही नहीं भोगेगा। सुख से अहंकार में नहीं आयेगा ,दुःख से विचलित नहीं होगा।
हमें ईशवर प्राप्ति तब होगी जब हम वैराग्य को प्राप्त कर लेंगें (वैराग्य का मतलब कुछ छोड़ना नहीं है ,बुद्धि का आसक्ति, राग द्वेष के दलदल से बाहर निकल आना है )ज़ब तक फलों के आकर्षण से सम्मोहित होकर लिप्त होकर हम कर्म करते रहेंगे ,वैराग्य नहीं मिलेगा। इनसे मन निकल जाने के बाद ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।
शाश्त्रोक्त भाँति भाँति के वचनों ,बातों को सुनकर हमारी बुद्धि भ्रांत हो गई है। जब यह परमात्मा में ठहर जाती व्यक्ति मोक्ष पा जाता है।
जिसके जीवन में धर्म उतरा है जिसका ज्ञानोदय हो गया है जिसकी प्रज्ञा भगवान् में स्थिर हो गई है वही स्थितप्रज्ञ है।
शारदा माँ के अनुसार ज्ञान ,भक्ति ,और मुक्ति की कामनाओं को कामनाओं की कोटि में नहीं रखा जा सकता। क्योंकि ये उच्चतर कामनाएं हैं। पहले व्यक्ति को क्षुद्र कामनाओं की जगह उच्चतर कामनाएं ग्रहण करनी चाहिए ,फिर उच्चतम कामना का भी परित्याग करके पूर्णतया मुक्त हो जाना चाहिए।
ॐ शान्ति
अंतर राखे जो मिले ,तासे मिले बलाय।
जो प्रीती की अभिन्नता से तुमसे मिले उसे हृदय में धारण करना चाहिए। एक निष्ठा से ही परमात्मा मिलता है। समर्पित प्रेम से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। उसे ही हृदय में बसा लेना चाहिए ,फिर बाहर नहीं जाने देना चाहिए। जिस संसार को हमने पहले से हृदय में बसा रखा है वह संसार तो कष्ट देने वाला है। जो एक समर्पण से ही मिलता है वह एक परमात्मा ही है।
( १ ३ )अब गुरु दिल में देखिया ,गावन को कछु न नाय ,
कबीरा जब हम गावते ,तब जाना गुरु नाय।
जब हमने अपन हृदय में गुरु का दर्शन कर लिया फिर उसके बारे में लोगों को बताना अपना गौरव गान ही है। अब उसका कोई औचित्य भी नहीं रह गया है। उसे तो अब अपने दिल में ही बसा लिया है। अब उसके बारे में बताने की ज़रुरत ही नहीं है। उसका प्रकाशक तत्व तो अब मेरे भीतर ही बैठा हुआ है। अब गुरु के लिए बाहरी ढिंढोरा पीटना सब व्यर्थ ही लगता है। जब हम गुरु को नहीं जानते थे तब यह सब ही तो करते थे।
( १ ४ )मन लागा उस एक से ,एक भया सब माहिं ,
सब मेरा मैं सबन का ,इहाँ दूसरा नाहिं।
मैंने उस परमात्मा को जान लिया है अब सबमें मुझे एक वही दिखाई देता है। बाहर भीतर का अब सब भेद मिट गया है। वह जो सबमें व्याप्त है वही एक परमात्मा तो मुझमें व्याप्त है इस नाते से पूरा संसार भी मुझमे ही व्याप्त है। और मैं पूरे संसार में व्याप्त हूँ।
( १ ५ )कबीरा ते नर अंध हैं ,गुरु को कहते और ,
हरि रूठे गुरु ठौर है ,गुरु रूठे नहीं ठौर।
जो गुरु को परमात्मा से भिन्न मानते हैं वे अंधे हैं। गुरु तो परमात्मा रूप ही है। बल्कि उससे भी आगे है। क्योंकि परमात्मा अगर रूठ जाए गुरु फिर भी आश्रय देता है गुरु रूठ जाए ,फिर परमात्मा भी नहीं बचाता है। गुरु स्वयं परमात्मा भी है और अपने शिष्यों के लिए परमात्मा से बढ़कर भी है। गुरु साक्षात सगुण रूप है परमात्मा का। यदि तुमको गुरु में परमात्मा नहीं दिखाई देता है तो समझो परमात्मा तुमसे बहुत दूर है। फिर तुम उसे पा नहीं सकते।
( १ ६ )करता था तो क्यों रहा ,अब काहे पछताय ,
बोया पेड़ बबूल का ,आम कहाँ से खाय।
अगर तुम अपने आपको ही करता मानते थे तो फिर जीवन में असफल ही क्यों हुए। इसका मतलब यह है तुम करता नहीं हो कर्म के निमित्त हो। करन करावन - हार वह ईश्वर ही है वही करता है। कारणों का कारण वही है। तुम अपने अहंकार में आके कृतित्व का भाव न रखते तो अपने आप को करता न मानते। तब सुख दुःख भी न पाते। अब जब परमात्मा की दी हुई शक्ति को ही तुमने अपना अहंकार बना लिया है। बबूल का पेड़ ही तब तुमने बोया है जिसमें कांटे ही कांटे हैं इसलिए आम कहाँ से खाने को मिलेगा। तुमने ऐसे काम क्यों नहीं किये जो जीवन में सुख मिले। तुम नियामक नहीं निमित्त थे और अपने को करता समझ बैठे। कर्म के अहंकार कर्म की आसक्ति की वजह से ही तुमने कष्ट पाया है। सकाम कर्म करने का तुमने दंभ पाला था। इसलिए अब कष्ट उठा रहे हो।
( १ ७ )यार बुलावे भाव सूँ ,मोसे गयो न जाय ,
दुल्हन मैली ,पिउ उजला ,लाग सकूँ न पायं।
मैं उसके भाव की ,प्रेम की डोर में बंध के उसके पास जा ही न सका। अपने अहंकार में ही पडा रहा। अपने अहंकार को छोड़कर उसमें लीन ही न हो सका। आत्मा रुपी दुल्हन अब कहती है-मेरा प्रियतम तो उज्जवल है। उसने तो बड़ी सहजता से ही मुझे बुलाया था मैंने ही संसार के सुख भोग की लालसा में खुद को मैला बना लिया उसकी सुनी नहीं। अब मैं उसके पैर भी कैसे छूवूँ ?मैं तो अब उसके चरण स्पर्श कर लेने की भी पात्रता खो चुकी हूँ। संसार के पापों में ही मैं ने अपना जीवन नष्ट कर दिया।
( १ ८ )हरि से भी हरिजन बड़े ,समझ देखि मन माहिं ,
कहे कबीर जग हरि दिखे ,तो हरि हरि जन माहिं।
यहाँ अद्वैत की बात है। जो भक्त होता है वह भगवान् से भी बड़ा होता है भगवान् की नजर में। भगवान स्वयं कहतें हैं जो मेरे भक्तों का अनादर करता है मैं उसे कभी माफ़ नहीं करता। तू अपने मन में देख और समझ -परमात्मा से भी बड़े परमात्मा के भक्त होते हैं। उनकी संगत करोगे तो परमात्मा भी मिल जायेंगे। इस दोहे में संतों का महत्व बतलाया गया है। हरि में पूरा संसार व्याप्त है। परमात्मा और उसका बनाया हुआ यह सारा संसार जिसमें भगत भी हैं एक हरि में ही व्याप्त हैं। सारा जन जन (सारा संसार )ही परमात्मा में समाया हुआ है। सब कुछ ईशवर में ही वसित है। ईश ही पूरे संसार में व्याप्त है।
१९ ) प्रीत जो लागी घुल गई ,पीठ गई मन माहिं ,
रूम रूम पिउ पिउ कहै ,मुख की श्रृद्धा नाहिं।
प्रभु प्रीत पहले तो मुख से जपने उसके नाम तक ही सीमित थी। अब प्रभु मेरे लिए केवल मुख से उच्चारण नहीं है अब तो प्रिय का नाम मुख के उच्चारण से आगे निकल हृदय की मार्फ़त शरीर के हर कोष तक पहुंच गया है। अब पूरी शरीर सत्ता ही उसका उच्चारण करती है। उसका नाम अब तो सारे अस्तित्व कोष में ही समा गया है।
ॐ शान्ति
साथ में पढ़िए गीता श्लोक ,भावार्थ सहित (५० -५५ )
श्रीमद्भागवत गीता (श्लोक ५१ -५५ )
(५ १ )ग्यानी कर्मयोगी जन कर्मफल की आसक्ति को त्यागने के कारण जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं तथा परम शान्ति को प्राप्त करते हैं।
(५ २ )जब तुम्हारी बुद्धि मोह रुपी दलदल को पार कर जायेगी ,उस समय तुम शाश्त्र से सुने हुए तथा सुनने योग्य वस्तुओं से भी वैराग्य प्राप्त करोगे।
(५ ३ )जब अनेक प्रकार के प्रवचनों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में निश्छल रूप से स्थिर हो जायेगी ,उस समय तुम समाधि में परमात्मा से युक्त हो जाओगे।
( ५४ )अर्जुन बोले -हे केशव ,समाधि प्राप्त ,स्थिर बुद्धि वाले अर्थात स्थितप्रज्ञ मनुष्य का लक्षण क्या है ?स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है ,कैसे बैठता है और कैसे चलता है।
(५ ५ )श्रीभगवान बोले -हे पार्थ ,जिस समय साधक अपने मन की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण रूप से त्याग देता है और आत्मा में आत्मानंद से ही संतुष्ट रहता है ,उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
विस्तृत भाव- सार उपर्युक्त का :
सबसे पहले व्यक्ति को ज्ञान से जुड़ना चाहिए कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल अनुकूलता ,प्रतिकूलता से प्रभावित नहीं होना चाहिए। ऐसा व्यक्ति निर्विकार पद मोक्ष को प्राप्त हो जाता है ईश्वर को प्राप्त हो जाता है। भगवान् यहाँ ऐसा करने की विधि बतला रहे हैं -
विवेक से जुड़े ग्यानी जन कर्म फल की आसक्ति को छोड़ देते हैं। हमारे जीवन में जो भी हालात आते हैं वह सभी हमारे ही कर्मों का फल हैं । सुख दुःख दोनों ही जीवन में आते हैं विवेकवान व्यक्ति दोनों को ही नहीं भोगेगा। सुख से अहंकार में नहीं आयेगा ,दुःख से विचलित नहीं होगा।
हमें ईशवर प्राप्ति तब होगी जब हम वैराग्य को प्राप्त कर लेंगें (वैराग्य का मतलब कुछ छोड़ना नहीं है ,बुद्धि का आसक्ति, राग द्वेष के दलदल से बाहर निकल आना है )ज़ब तक फलों के आकर्षण से सम्मोहित होकर लिप्त होकर हम कर्म करते रहेंगे ,वैराग्य नहीं मिलेगा। इनसे मन निकल जाने के बाद ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।
शाश्त्रोक्त भाँति भाँति के वचनों ,बातों को सुनकर हमारी बुद्धि भ्रांत हो गई है। जब यह परमात्मा में ठहर जाती व्यक्ति मोक्ष पा जाता है।
जिसके जीवन में धर्म उतरा है जिसका ज्ञानोदय हो गया है जिसकी प्रज्ञा भगवान् में स्थिर हो गई है वही स्थितप्रज्ञ है।
शारदा माँ के अनुसार ज्ञान ,भक्ति ,और मुक्ति की कामनाओं को कामनाओं की कोटि में नहीं रखा जा सकता। क्योंकि ये उच्चतर कामनाएं हैं। पहले व्यक्ति को क्षुद्र कामनाओं की जगह उच्चतर कामनाएं ग्रहण करनी चाहिए ,फिर उच्चतम कामना का भी परित्याग करके पूर्णतया मुक्त हो जाना चाहिए।
ॐ शान्ति
Posted: 21 Aug 2013 09:47 PM PDT
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