शुक्रवार, 23 अगस्त 2013
Kabir's couplets with their essence
कबीरदास :फुटकर दोहे भावार्थ सहित
(१ )लिखा लिखी की है नहीं ,देखा देखि बात ,
दुल्हा दुल्हन मिल गए ,फीकी पड़ी बरात।
कबीर ने एक और स्थान पर भी कहा है -
तुम कहते कागद की लेखी ,
मैं कहता हूँ आंखन देखि।
ये जो कुछ भी मेरे पास है यह पुस्तकीय ज्ञान नहीं है यह तो अनुभव की बात है। अनुभव प्रसूत है ,जीवन में जो ज्ञान प्राप्त किया है उसके आधार पर जीवन के यथार्थ के आधार पर कह रहा हूँ -
संसार तो तमाश बीन है। यह तमाशा भी तभी तक है जब तक आत्मा परमात्मा से दूर है। जब आत्मा के मन में परमात्मा को पाने की तड़प लगती है संसार की बारात फिर फीकी पड़ जाती है। आनंद हीन हो जाता है संसार। बरात रुपी संसार ही आत्मा के लिए फिर निस्सार हो जाता है। कबीर अध्यात्म को भी लोक उक्तियों के माध्यम से दुल्हा दुल्हन के माध्यम से समझाते हैं (दुल्हा दुल्हन राजी तो क्या करेगा क़ाज़ी ).
इस दोहे में अद्वैत की बात है एक होने की बात है आत्मा परमात्मा के मिलन की बात है। जब आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है तब संसार के ये ढोल बाजे उसे अच्छे नहीं लगते। संसार के ये बाजे गाजे तभी तक सुहाते हैं जब तक मनुष्य अपने आप को पहचानता नहीं है जानता नहीं है मैं आत्मा हूँ परमात्मा का वंश हूँ उससे बिछड़ा हुआ हूँ।
(२ )जब लग नाता जगत का ,तब लग भगति न होय ,
नाता तोड़े हर भजे ,भगत कहावे सोय.
यहाँ भी ऊपर वाली बात का ही समर्थन है। आसक्ति भक्ति की विरोधी है। आसक्ति होती है संसार की पदार्थ की । भक्ति संसार की आसक्ति से नाता तोड़ने पर ही हो सकती है। सच्चा भक्त वही कहला सकता है जिसने संसार की आसक्ति राग बिराग से नाता तोड़ लिया है और अपने चित्त को परमात्मा में टिका लिया है।
(३ )साधु कहावत कठिन है , लम्बा पेड़ खजूर ,
चढ़े तो चाख्ये प्रेम रस ,गिरे तो चकनाचूर।
संतई का मार्ग कठिन है। ईश्वर की आराधना का मार्ग है यह जो अति कठिन है। जैसे लंबा पेड़ हो खजूर का और उसके फल खाने हों तो उस तक फलों तक जाना होगा। इन फलों को पत्थर मारके नहीं तोड़ा जा सकता। भक्ति की इस ऊंचाई तक चढ़के व्यक्ति फिर परमानंद को पा लेता है। सच्चिदानंद को प्राप्त होता है। लेकिन अगर गिर गया तो दोनों तरफ से जाता है भक्ति से भी संसार से भी।अटल निष्ठा चाहिए इस मार्ग में। मधुर फल खाना भक्ति का बहुत कठिन है। यह खजूर के पेड़ पर चढ़ने के समान श्रम साध्य है।
(४ )देख पराई चौपड़ी ,मत ललचावे जिये ,
रूखा सूखा खाय के ,ठंडा पानी पिये।
रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी (पीव ),
देख पराई चुपड़ी मत ललचावे जी (जीव )।
कबीर लोक के कवि हैं कई कई स्वरूप हैं उनके एक एक दोहे के जिसने जैसा मौखिक परम्परा के तहत याद आया लिख दिया। बहुत कुछ मिश्र चला आया है कबीर के लिखे में।
इस दोहे में कबीर कहते हैं -संतोष ही सबसे बड़ा धन है। जो कुछ भी जीवन में प्राप्त है ईश्वर का दिया हुआ है उसी में प्रसन्न रहना ही जीवन में सुख संतोष का विषय होना चाहिए। तुम किसी और की समृद्धि को लेकर हृदय में जलन मत रखो। जो कुछ तुम्हें मिला है उसे अभिशाप न मानो। रूखा सूखा खाके ठंडा पानी पी लो।
(अब बेचारे कबीर को छ :सौ बरस पहले यह थोड़ी पता था -मनमोहन
सोनिया आयेंगे इस देश पर राज करने। तब रूखा सूखा भी नसीब न होगा।
चना चबैना भी खाने को नहीं मिलेगा। फ़ूड सिक्यूरिटी बिल लाना पडेगा
उसके लिए
भी।हे प्रजा वासियों ये जो सुख समृद्धि इन्होनें अपने और सिर्फ अपने भाई
बंधु दामादों के लिए प्राप्त की है साले सट्टुओं के लिए जुटा ई है यह
तुम्हारा
शोषण करके ही प्राप्त की है। २०१४ में इन्हें वोट की धूल सुंघा दो। )
तुम यदि दूसरे की समृद्धि उसकी चुपड़ी रोटी देख के जलते रहे तो तुम्हें
परमात्मा की भक्ति प्राप्त नहीं होगी।
(४ )जब मैं था तब हरि नहीं ,अब हरि है मैं नाहिं ,
जग अंधियारी मिट गया ,जब दीपक देख्यो घट माहिं।
जब मेरे अन्दर अहंकार का वास था तब मेरे अन्दर परमात्मा का वास
नहीं था। जब "मैं "का भाव था तब परमात्मा की कृपा मुझे प्राप्त न थी।
अब जब परमात्मा के सर्वत्र होने का भाव मेरे मन में समा गया है तब ये
और है वो और है ,अपने पराये का भाव भी मिट गया।द्वैत का भाव मिट
गया। अद्वैत भाव समा गया। जब अपने ही शरीर
में खुद को आत्मा के वास को देखा परमात्मा के वास को देखा तो मेरे हृदय
में जो अनेक प्रकार के अवगुण थे अज्ञान का अंधियारा था वह मिट गया।
ॐ शान्ति।
(१ )लिखा लिखी की है नहीं ,देखा देखि बात ,
दुल्हा दुल्हन मिल गए ,फीकी पड़ी बरात।
कबीर ने एक और स्थान पर भी कहा है -
तुम कहते कागद की लेखी ,
मैं कहता हूँ आंखन देखि।
ये जो कुछ भी मेरे पास है यह पुस्तकीय ज्ञान नहीं है यह तो अनुभव की बात है। अनुभव प्रसूत है ,जीवन में जो ज्ञान प्राप्त किया है उसके आधार पर जीवन के यथार्थ के आधार पर कह रहा हूँ -
संसार तो तमाश बीन है। यह तमाशा भी तभी तक है जब तक आत्मा परमात्मा से दूर है। जब आत्मा के मन में परमात्मा को पाने की तड़प लगती है संसार की बारात फिर फीकी पड़ जाती है। आनंद हीन हो जाता है संसार। बरात रुपी संसार ही आत्मा के लिए फिर निस्सार हो जाता है। कबीर अध्यात्म को भी लोक उक्तियों के माध्यम से दुल्हा दुल्हन के माध्यम से समझाते हैं (दुल्हा दुल्हन राजी तो क्या करेगा क़ाज़ी ).
इस दोहे में अद्वैत की बात है एक होने की बात है आत्मा परमात्मा के मिलन की बात है। जब आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है तब संसार के ये ढोल बाजे उसे अच्छे नहीं लगते। संसार के ये बाजे गाजे तभी तक सुहाते हैं जब तक मनुष्य अपने आप को पहचानता नहीं है जानता नहीं है मैं आत्मा हूँ परमात्मा का वंश हूँ उससे बिछड़ा हुआ हूँ।
(२ )जब लग नाता जगत का ,तब लग भगति न होय ,
नाता तोड़े हर भजे ,भगत कहावे सोय.
यहाँ भी ऊपर वाली बात का ही समर्थन है। आसक्ति भक्ति की विरोधी है। आसक्ति होती है संसार की पदार्थ की । भक्ति संसार की आसक्ति से नाता तोड़ने पर ही हो सकती है। सच्चा भक्त वही कहला सकता है जिसने संसार की आसक्ति राग बिराग से नाता तोड़ लिया है और अपने चित्त को परमात्मा में टिका लिया है।
(३ )साधु कहावत कठिन है , लम्बा पेड़ खजूर ,
चढ़े तो चाख्ये प्रेम रस ,गिरे तो चकनाचूर।
संतई का मार्ग कठिन है। ईश्वर की आराधना का मार्ग है यह जो अति कठिन है। जैसे लंबा पेड़ हो खजूर का और उसके फल खाने हों तो उस तक फलों तक जाना होगा। इन फलों को पत्थर मारके नहीं तोड़ा जा सकता। भक्ति की इस ऊंचाई तक चढ़के व्यक्ति फिर परमानंद को पा लेता है। सच्चिदानंद को प्राप्त होता है। लेकिन अगर गिर गया तो दोनों तरफ से जाता है भक्ति से भी संसार से भी।अटल निष्ठा चाहिए इस मार्ग में। मधुर फल खाना भक्ति का बहुत कठिन है। यह खजूर के पेड़ पर चढ़ने के समान श्रम साध्य है।
(४ )देख पराई चौपड़ी ,मत ललचावे जिये ,
रूखा सूखा खाय के ,ठंडा पानी पिये।
रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी (पीव ),
देख पराई चुपड़ी मत ललचावे जी (जीव )।
कबीर लोक के कवि हैं कई कई स्वरूप हैं उनके एक एक दोहे के जिसने जैसा मौखिक परम्परा के तहत याद आया लिख दिया। बहुत कुछ मिश्र चला आया है कबीर के लिखे में।
इस दोहे में कबीर कहते हैं -संतोष ही सबसे बड़ा धन है। जो कुछ भी जीवन में प्राप्त है ईश्वर का दिया हुआ है उसी में प्रसन्न रहना ही जीवन में सुख संतोष का विषय होना चाहिए। तुम किसी और की समृद्धि को लेकर हृदय में जलन मत रखो। जो कुछ तुम्हें मिला है उसे अभिशाप न मानो। रूखा सूखा खाके ठंडा पानी पी लो।
(अब बेचारे कबीर को छ :सौ बरस पहले यह थोड़ी पता था -मनमोहन
सोनिया आयेंगे इस देश पर राज करने। तब रूखा सूखा भी नसीब न होगा।
चना चबैना भी खाने को नहीं मिलेगा। फ़ूड सिक्यूरिटी बिल लाना पडेगा
उसके लिए
भी।हे प्रजा वासियों ये जो सुख समृद्धि इन्होनें अपने और सिर्फ अपने भाई
बंधु दामादों के लिए प्राप्त की है साले सट्टुओं के लिए जुटा ई है यह
तुम्हारा
शोषण करके ही प्राप्त की है। २०१४ में इन्हें वोट की धूल सुंघा दो। )
तुम यदि दूसरे की समृद्धि उसकी चुपड़ी रोटी देख के जलते रहे तो तुम्हें
परमात्मा की भक्ति प्राप्त नहीं होगी।
(४ )जब मैं था तब हरि नहीं ,अब हरि है मैं नाहिं ,
जग अंधियारी मिट गया ,जब दीपक देख्यो घट माहिं।
जब मेरे अन्दर अहंकार का वास था तब मेरे अन्दर परमात्मा का वास
नहीं था। जब "मैं "का भाव था तब परमात्मा की कृपा मुझे प्राप्त न थी।
अब जब परमात्मा के सर्वत्र होने का भाव मेरे मन में समा गया है तब ये
और है वो और है ,अपने पराये का भाव भी मिट गया।द्वैत का भाव मिट
गया। अद्वैत भाव समा गया। जब अपने ही शरीर
में खुद को आत्मा के वास को देखा परमात्मा के वास को देखा तो मेरे हृदय
में जो अनेक प्रकार के अवगुण थे अज्ञान का अंधियारा था वह मिट गया।
ॐ शान्ति।
Posted: 22 Aug 2013 10:28 PM PDT
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