श्रीमदभगवत गीता दूसरा अध्याय (श्लोक ४६ -५० )
(४ ६ )ब्रह्म को तत्वत :जानने वालों के लिए वेदों की उतनी ही आवश्यकता रहती है ,जितनी महान सरोवर के प्राप्त होने पर एक छोटे जलाशय की।
(४ ७ )केवल कर्म करना ही मनुष्य के वश में है ,कर्म फल नहीं। इसलिए तुम कर्म फल की आसक्ति में न फंसो तथा अपने कर्म का त्याग भी न करो।
(४ ८ )हे धनंजय ,परमात्मा के ध्यान और चिंतन में स्थित होकर ,सभी प्रकार की आसक्तियों को त्यागकर ,तथा सफलता और असफलता में सम होकर ,अपने कर्तव्यों का भली भाँति पालन करो। मन का समत्व भाव में रहना ही योग कहलाता है।
(४ ९ )कर्म योग से सकाम कर्म अत्यंत निकृष्ट है ,अत : हे अर्जुन तुम कर्म योगी बनो,क्योंकि फल की इच्छा रखने वालों को (असफलता का भय तथा )दुःख होता है।
( ५ ० )कर्म फल की आसक्ति त्यागकर कर्म करने वाला निष्काम कर्म योगी इसी जीवन में पाप और पुण्य से मुक्त हो जाता है,इसलिए तुम निष्काम कर्म योगी बनो। (फल की आसक्ति से असफलता का भय होता है ,जिसके कारण कर्म अच्छी तरह नहीं हो पाता है। )निष्काम कर्म योग को ही कुशलता पूर्वक कर्म करना कहते हैं, तभी अधिकतम आउट पुट स्वत :ह प्राप्त होता है।
विस्तारित भाव उपर्युक्त श्लोकों का :
जिस व्यक्ति को बहुत बड़ी पानी की झील मिल जाए अर्थात जिसने भगवान को जान लिया है उसके लिए छोटे से तालाब का क्या प्रयोजन रह जाता है। ऐसे ही ब्रह्म को जान लेने वाले के लिए शाश्त्रों वेद पुराणों का भी क्या अर्थ रह जाता है। मुख्य वस्तु है परमात्मा ये वेद शाश्त्र भी उधर ही इशारा करते हैं।
जब तक व्यक्ति को बड़ा ज्ञान प्राप्त नहीं होता वह छोटे ज्ञान (सांसारिक ज्ञान )से ही काम चला लेता है। जल ज्ञान का प्रतीक है और बड़ा जलाशय ईश्वर ज्ञान ,आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक है। महापुरुषों की वाणी ,शाश्त्र ,सत्संग सब सीढियां हैं जो परमात्मा की तरफ ही ले जाती हैं।
जिस पर (कर्म फल पर )हमारा अधिकार नहीं है उसमें हमारी रूचि नहीं होनी चाहिए। वृक्ष को लगातार जल दोगे तो उसका परिणाम भी खुद से ही अच्छा आयेगा। कर्म न करने का आलस्य कभी न करना। फल के उद्देश्य को ही लेकर कर्म करना बहुत खतरनाक है।डॉकटरी की पढ़ाई कोई नक़ल मारके पूरी करेगा तो समाज के लिए बहुत खतरनाक हो जाएगा। कर्म करने में ही हमें आनंद आना चाहिए। बच्चा अपनी मर्ज़ी से केवल आनंद के लिए खेलता है वर्जिश के लिए नहीं। वर्जिश तो खुद से ही हो जाती है। भोजन बनाने में गृहणी को जितना आनंद आयेगा भोजन उतना ही स्वादिष्ट बनेगा।
हे अर्जुन सबसे पहले अपने मन को पवित्रता में स्थिर करो -योग युक्त होकर कर्म करो। भोजन भी परोसने वाले को हाथ धोकर ही परोसना चाहिए। अपने हाथ धोकर ही मुझे भोजन परोसो। पहले मन को शुद्ध करो। भोगों की लालसा से हटो फिर अपने सब कर्मों को करो। जहां कहीं से भी तुम्हारे मन की डोर बंधी हुई है पहले उसको छोड़ो। जो समत्व है वही योग है। सुख दुःख में सम भाव रखना व्यक्ति को विनम्र बनाता है। गरीबी अमीरी ,सुख दुःख में जो समान भाव बनाए रहेगा हर परिश्थिति में एक समान भाव बनाए रहेगा वही समत्व योगी है। जैसे व्यक्ति जीवन में धन संचय करता है वैसे ही धैर्य पूर्वक जीवन में अच्छाइयों का भी संचय करना चाहिए। अन्दर से एक समान होना चाहिए व्यक्ति को वही योग है।योगी है।
तुम समता में शरण खोजो। बुद्धि की शरण जाओ।बुद्धि का ही करिश्मा है अभिनव प्रोद्योगिकी कटिंग एज टेक्नालाजी। फल को चाहने वाले लोग क्षुद्र बुद्धि वाले हैं। निम्न कोटि के प्राणि हैं। तू अपनी बुद्धि में ही अपनी रक्षा का उपाय ढूंढ़ । समत्व बुद्धि युक्त होकर परमात्मा में जब व्यक्ति की बुद्धि स्थिर हो जाती है तब इस संसार की विषम वस्तुओं को वह स्वत : ही छोड़ देता है। कर्मों का कौशल्य ही योग है जैसे कोई आदिवासी मधुमख्खी के छत्ते से शहद तो निकाल ले लेकिन दंश से बचा रहे मधुमख्खियों के। पाप पुण्य भाव पर ,हमारे इरादे पर हमारे इंटेंशन पर ,हमारी नीयत पर निर्भर करता है सिर्फ कर्म पर नहीं। पहले तुम आध्यात्मिक जीवन से जुड़ जाओ फिर तुम योग से जुड़ जाओगे।
ॐ शान्ति
सन्दर्भ -सामिग्री :योगी आनंद जी का स्काइप पर क्लास (उत्तरी कैरोलिना ,दिनांकित २० अगस्त ,२०१३ )
(४ ६ )ब्रह्म को तत्वत :जानने वालों के लिए वेदों की उतनी ही आवश्यकता रहती है ,जितनी महान सरोवर के प्राप्त होने पर एक छोटे जलाशय की।
(४ ७ )केवल कर्म करना ही मनुष्य के वश में है ,कर्म फल नहीं। इसलिए तुम कर्म फल की आसक्ति में न फंसो तथा अपने कर्म का त्याग भी न करो।
(४ ८ )हे धनंजय ,परमात्मा के ध्यान और चिंतन में स्थित होकर ,सभी प्रकार की आसक्तियों को त्यागकर ,तथा सफलता और असफलता में सम होकर ,अपने कर्तव्यों का भली भाँति पालन करो। मन का समत्व भाव में रहना ही योग कहलाता है।
(४ ९ )कर्म योग से सकाम कर्म अत्यंत निकृष्ट है ,अत : हे अर्जुन तुम कर्म योगी बनो,क्योंकि फल की इच्छा रखने वालों को (असफलता का भय तथा )दुःख होता है।
( ५ ० )कर्म फल की आसक्ति त्यागकर कर्म करने वाला निष्काम कर्म योगी इसी जीवन में पाप और पुण्य से मुक्त हो जाता है,इसलिए तुम निष्काम कर्म योगी बनो। (फल की आसक्ति से असफलता का भय होता है ,जिसके कारण कर्म अच्छी तरह नहीं हो पाता है। )निष्काम कर्म योग को ही कुशलता पूर्वक कर्म करना कहते हैं, तभी अधिकतम आउट पुट स्वत :ह प्राप्त होता है।
विस्तारित भाव उपर्युक्त श्लोकों का :
जिस व्यक्ति को बहुत बड़ी पानी की झील मिल जाए अर्थात जिसने भगवान को जान लिया है उसके लिए छोटे से तालाब का क्या प्रयोजन रह जाता है। ऐसे ही ब्रह्म को जान लेने वाले के लिए शाश्त्रों वेद पुराणों का भी क्या अर्थ रह जाता है। मुख्य वस्तु है परमात्मा ये वेद शाश्त्र भी उधर ही इशारा करते हैं।
जब तक व्यक्ति को बड़ा ज्ञान प्राप्त नहीं होता वह छोटे ज्ञान (सांसारिक ज्ञान )से ही काम चला लेता है। जल ज्ञान का प्रतीक है और बड़ा जलाशय ईश्वर ज्ञान ,आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक है। महापुरुषों की वाणी ,शाश्त्र ,सत्संग सब सीढियां हैं जो परमात्मा की तरफ ही ले जाती हैं।
जिस पर (कर्म फल पर )हमारा अधिकार नहीं है उसमें हमारी रूचि नहीं होनी चाहिए। वृक्ष को लगातार जल दोगे तो उसका परिणाम भी खुद से ही अच्छा आयेगा। कर्म न करने का आलस्य कभी न करना। फल के उद्देश्य को ही लेकर कर्म करना बहुत खतरनाक है।डॉकटरी की पढ़ाई कोई नक़ल मारके पूरी करेगा तो समाज के लिए बहुत खतरनाक हो जाएगा। कर्म करने में ही हमें आनंद आना चाहिए। बच्चा अपनी मर्ज़ी से केवल आनंद के लिए खेलता है वर्जिश के लिए नहीं। वर्जिश तो खुद से ही हो जाती है। भोजन बनाने में गृहणी को जितना आनंद आयेगा भोजन उतना ही स्वादिष्ट बनेगा।
हे अर्जुन सबसे पहले अपने मन को पवित्रता में स्थिर करो -योग युक्त होकर कर्म करो। भोजन भी परोसने वाले को हाथ धोकर ही परोसना चाहिए। अपने हाथ धोकर ही मुझे भोजन परोसो। पहले मन को शुद्ध करो। भोगों की लालसा से हटो फिर अपने सब कर्मों को करो। जहां कहीं से भी तुम्हारे मन की डोर बंधी हुई है पहले उसको छोड़ो। जो समत्व है वही योग है। सुख दुःख में सम भाव रखना व्यक्ति को विनम्र बनाता है। गरीबी अमीरी ,सुख दुःख में जो समान भाव बनाए रहेगा हर परिश्थिति में एक समान भाव बनाए रहेगा वही समत्व योगी है। जैसे व्यक्ति जीवन में धन संचय करता है वैसे ही धैर्य पूर्वक जीवन में अच्छाइयों का भी संचय करना चाहिए। अन्दर से एक समान होना चाहिए व्यक्ति को वही योग है।योगी है।
तुम समता में शरण खोजो। बुद्धि की शरण जाओ।बुद्धि का ही करिश्मा है अभिनव प्रोद्योगिकी कटिंग एज टेक्नालाजी। फल को चाहने वाले लोग क्षुद्र बुद्धि वाले हैं। निम्न कोटि के प्राणि हैं। तू अपनी बुद्धि में ही अपनी रक्षा का उपाय ढूंढ़ । समत्व बुद्धि युक्त होकर परमात्मा में जब व्यक्ति की बुद्धि स्थिर हो जाती है तब इस संसार की विषम वस्तुओं को वह स्वत : ही छोड़ देता है। कर्मों का कौशल्य ही योग है जैसे कोई आदिवासी मधुमख्खी के छत्ते से शहद तो निकाल ले लेकिन दंश से बचा रहे मधुमख्खियों के। पाप पुण्य भाव पर ,हमारे इरादे पर हमारे इंटेंशन पर ,हमारी नीयत पर निर्भर करता है सिर्फ कर्म पर नहीं। पहले तुम आध्यात्मिक जीवन से जुड़ जाओ फिर तुम योग से जुड़ जाओगे।
ॐ शान्ति
सन्दर्भ -सामिग्री :योगी आनंद जी का स्काइप पर क्लास (उत्तरी कैरोलिना ,दिनांकित २० अगस्त ,२०१३ )
Madhuban Murli LIVE - 21/8/2013 (7.05am to 8.05am IST) - YouTube
www.youtube.com/watch?v=R47AidjPeaU15 hours ago - Uploaded by Madhuban Murli Brahma KumarisMurli is the real Nectar for Enlightenment, Empowerment of Self (Soul). Murli is the source of income which ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज वृहस्पतिवार (22-06-2013) के "संक्षिप्त चर्चा - श्राप काव्य चोरों को" (चर्चा मंचः अंक-1345)
पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'