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शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

उधौ मन नाहिं दस बीस ,

 भ्रमर गीतसे एक और पद -सूरदास 

उधौ मन नाहिं दस बीस ,

एकहु  तो सो गयो श्याम संग ,

को अराध तू ईस। (अब काहू राधे ईस ).. 

भई अति शिथिल  सबै माधव बिनु ,

यथा देह बिन सीस ,

स्वासा अटक रहे ,आसा लगि ,

जीव ही कोटि बरीस (वर्षों ). 


तुम तो सखा श्याम सुन्दर के 

सकल जोग के ईस !

सूरजदास (सूर श्याम )रसिक की बतियाँ ,

पुरबो (पूरा करो )  मन जगदीस। 

व्याख्या :उधौ मन तो एक ही होता है कोई दस बीस तो होते नहीं (-यही  

कहा  

गोपियों ने उद्धव जी को निर्गुनिया ब्रह्म की उपासना का सन्देश लिए जो 

गोपियों के पास पहुंचे थे। )एक जो मन था वह तो कृष्ण  को दे दिया अब 

तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना हम किस मन से करें ?हम तुम्हारी तरह 

योगी नहीं है तुम तो योग के पंडित हो ,तुम कर सकते हो निर्गुण आराधना 

तुम्हारी और बात है हम तो प्रेम में विश्वास करती हैं ,निष्ठा में विश्वास 

रखती हैं। एक व्रती हैं। कृष्ण के बिना तो हम ऐसे निष्प्राण हो गए हैं जैसे 

बिना शीश के देह। निष्प्राण हो गईं हैं हम बस मरी नहीं हैं अभी। हमारे 

सांस इस आस में अटके हैं ,कृष्ण दोबारा मिल जायेंगे।हमें पता है कृष्ण 

वापस आयेंगे। चाहे करोड़ों बरस भी हमें ये कष्ट सहना पड़े हम सहर्ष सह 

लेंगी।हमारे प्राण भी प्रतीक्षा करेंगे। 

तुम तो योग के समर्थ ईश्वर हो ,कुछ भी कर सकते हो इतना ही कर दो -

हमारे मन में उस रसिक कृष्ण की जो प्रेम भरी बातें हैं वही भर दो।वह 

तुमको ही सुनाते रहे होंगें तुम तो उनके सखा हो।   तुम तो योग के सबसे 

बड़े साधक हो। रसिक कृष्ण की बातों से हे उद्धव हमारे मन को तृप्त करो। 

क्यों हमें और कष्ट पहुंचाते हो। 

ॐ शान्ति। 








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